मंगलवार, 11 अप्रैल 2017

काले फन का काला धन

















"ओ मजदूर! ओ मजदूर!!
तू सब चीजों का कर्ता, तू हीं सब चीजों से दूर
ओ मजदूर! ओ मजदूर!!
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श्वानों को मिलता वस्त्र दूध, भूखे बालक अकुलाते हैं।
मां की हड्डी से चिपक ठिठुर, जाड़ों की रात बिताते हैं
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युवती की लज्जा बसन बेच, जब ब्याज चुका जाते हैं
मालिक जब तेल फुलेलों पर पानी-सा द्रव्य बहाते हैं।
पापी महलों का अहंकार देता मुझको तब आमंत्रण।"

       दिनकर जी प्रस्तुत काव्यपंक्तियां कई संदर्भों में सामने रखी जाती है। मूलतः प्रगतिवादी युग में सामाजिक समानता, अंधाधुंधी, आक्रोश, शोषण, दयनीयता, दुःख, पीड़ा, पूंजीवादिता के विरोध में उठी आवाज मजदूरों तथा मेहनतकशों के प्रति संवेदना प्रकट करती है, उसके प्रति सहानुभूति जताती है और उनमें परिवर्तन की पेक्षा करती है। कवि की चाहत और सामाजिक वास्तव में जमीन आसमान का फर्क है। समाज के लिए और समाज के भीतर के नैतिक तथा अनैतिक कार्यों के लिए कहा जा सकता है यह एक मदमस्त हाथी है और वह अपनी ही धून बाजार में चल रहा है। कोई कुछ भी कहे या पत्थर मारे इसकी मोटी चमड़ी पर विशेष फर्क नहीं पड़ रहा है। हां हो सकता है उसके गति में थोड़ा फर्क आ जाए। कुछ दिनोंपरांत वहीं मस्ती और डिलडौल। हालांकि हाथी चले बाजार कुत्ते भौंके हजारकहावत रूप में हाथी से जूड़ा यह संदर्भ हमेशा अच्छे अर्थ में इस्तेमाल होता है, लेकिन मैंने यहां पर सामाजिक अधपतन के लिए इसका इस्तेमाल कर मानो हाथी पर अन्याय किया हो। खैर दिनकर जी की ऊपरी काव्यपंक्तियों को कोट करने के पीछे मेरा उद्देश्य कोई और है। आज मंचीय कवि और सामाजिक विड़ंबना पर कठोर आघात करनेवाले कवियों में हरिओम पंवार का नाम आता है और उनकी कई कविताएं दिनकर, धूमिल, निराला, मुक्तिबोध... जैसे कवियों की विरासत को आगे बढ़ा रही है। इन कवियों की अपेक्षा हरिओम पंवार की कविताओं के संदर्भ और ओजस्विता को अलग भी किया जा सकता है परंतु बेबाकी, सामाजिक वास्तव की कड़वाहट की पोल खोलना, वीरत्व के भाव, आवाहन, चुनौतियां, प्रस्तुति शैली आदि भारतीय समाज में पल रहे आक्रोश को प्रकट करती है और यह आक्रोश असमानता, सरकारी नीतियां, पूंजीवादिता, अमीरी-गरीबी के बीच बढ़ती खाई, भ्रष्टाचार, कालाधन, झूठ-फरेब, अनैतिकताएं, मक्कारी, एहसानफरामोशी, नकारात्मकता... आदि के प्रति है। पूरा आलेख पढने के लिए रचनाकार के इस युआरएल पर क्लिक करें http://www.rachanakar.org/2017/04/blog-post_65.html 

मंगलवार, 4 अप्रैल 2017

सुदामा पांडेय ‘धूमिल’ की काव्य संवेदना का प्रतिनिधित्व करती कविता ‘मोचीराम’


मोचीराम के लिए चित्र परिणाम

     सुदामा पांड़ेय ‘धूमिल’ जी का नाम हिंदी साहित्य में सम्मान के साथ लिया जाता है। तीन ही कविता संग्रह लिखे पर सारी प्रजातांत्रिक व्यवस्था और देश की स्थितियों को नापने में सफल रहें। समकालीन कविता के दौर में एक ताकतवर आवाज के नाते इनकी पहचान रही हैं। इनकी कविताओं में सहज, सरल और चोटिल भाषा के वाग्बाण हैं, जो पने और सुननेवाले को घायल करते हैं। कविताओं में संवादात्मकता है, प्रवाहात्मकता है, प्रश्नार्थकता है। कविताओं को पते हुए लगता है कि मानो हम ही अपने अंतर्मन से संवाद कर रहे हो। समकालीन कविता के प्रमुख आधार स्तंभ के नाते धूमिल ने बहुत बढ़ा योगदान दिया है। उनकी कविता में राजनीति पर जबरदस्त आघात है। आजादी के बाद सालों गुजरे पर आम आदमी के जीवन में कोई परिवर्तन नहीं हुआ, अतः सारा देश मोहभंग के दुःख से पीड़ित हुआ। इस पीड़ा को धूमिल ने ‘संसद से सड़क तक’, ‘कल सुनना मुझे’ और ‘सुदामा पांड़े का प्रजातंत्र’ इन तीन कविता संग्रहों की कई कविताओं के माध्यम से व्यक्त किया है। उनकी कविता में पीड़ा और आक्रोश देखा जा सकता है। आम आदमी का आक्रोश कवि की वाणी में घुलता है और शब्द रूप धारण कर कविताओं के माध्यम से कागजों पर उतरता है। बिना किसी अलंकार, साज-सज्जा के सीधी, सरल और सपाट बयानी आदमी की पीड़ाओं को अभिव्यक्त करती है। धूमिल का काव्य लेखन जब चरम पर था तब ब्रेन ट्यूमर से केवल 38 वर्ष की अल्पायु में उनकी मृत्यु होती है। तीन कविता संग्रहों के बलबूते पर हिंदी साहित्य में चर्चित कवि होने का भाग्य धूमिल को प्राप्त हुआ है। "सुदामा पांड़ेधूमिल हिंदी की समकालीन कविता के दौर के मील के पत्थर सरीखे कवियों में एक है। उनकी कविताओं में आजादी के सपनों के मोहभंग की पीड़ा और आक्रोश की सबसे सशक्त अभिव्यक्ति मिलती है। व्यवस्था जिसने जनता को छला है, उसको आइना दिखाना मानों धूमिल की कविताओं का परम लक्ष्य है। …..सन 1960 के बाद की हिंदी कविता में जिस मोहभंग की शुरूआत हुई थी, धूमिल उसकी अभिव्यक्ति करनेवाले अंत्यत प्रभावशाली कवि है। उनकी कविता में परंपरा, सभ्यता, सुरुचि, शालीनता और भद्रता का विरोध है, क्योंकि इन सबकी आड़ मे जो हृदय पलता है, उसे धूमिल पहचानते हैं। कवि धूमिल यह भी जानते हैं कि व्यवस्था अपनी रक्षा के लि इन सबका उपयोग करती है, इसलि वे इन सबका विरोध करते हैं। इस विरोध के कारण उनकी कविता में एक प्रकार की आक्रामकता मिलती है। किंतु उससे उनकी कविता की प्रभावशीलता बढ़ती है। धूमिल अकविता आंदोलन के प्रमुख कवियों में से एक हैं। धूमिल अपनी कविता के माध्यम से एक ऐसी काव्य भाषा विकसित करते हैं जो नई कविता के दौर की काव्य-भाषा की रुमानियत, अतिशय कल्पनाशीलता और जटिल बिंबधर्मिता से मुक्त है। उनकी भाषा काव्य-सत्य को जीवन सत्य के अधिकाधिक निकट लाती है। उन्हें मरणोपरांत 1979 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।" प्रस्तुत आलेख 'रचनाकार' ई-पत्रिका में प्रकाशित हुआ है। आगे पढने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें - http://www.rachanakar.org/2017/04/blog-post_31.html

रचनाकार में प्रस्तुत आलेख प्रकाशित है परंतु वहां पर यह आकृतियां जोडी नहीं है अतः इसे यहां पर दे रहा हूं।

धूमिल के कविताओंकी संवेदना और ‘मोचीराम’ कविता की तुलना


धूमिल के कविताओं की मूल संवेदना ‘मोचीराम’ में है या नहीं है,की तुलना


सिनेमा के सिद्धांत (Theories of Film)

सिनेमा के सिद्धांत के लिए चित्र परिणाम 
सिनेमा का निर्माण कोई एक व्यक्ति नहीं तो पूरे विश्वभर में विभिन्न देशों में विभिन्न भाषाओं के भीतर कई लोग कर रहे हैं। फिल्म निर्माण के दौरान निमार्ताओं द्वारा कोई सिद्धांत, मूल्य, विषय, नियम, कानून तय होते हैं। प्रत्येक निर्माता-निर्देशक इन सिद्धांतों और मूल्यों के लिए अपनी पूरी जिंदगी लगा देता है। इसके पहले स्पष्ट कर चुके हैं कि सिनेमा का समाज के साथ और साहित्य की विधाओं के साथ संबंध रहा है। सिनेमा एक कला भी है। कई विधाओं और कलाओं को सिनेमा अपने भीतर समेट लेता हैं। वह उन्हें न केवल समेटता है तो ताकतवर रूप में प्रस्तुत भी करता है। खैर इन सबका समेटना और प्रस्तुत करना नीति-नियम और कानून के तहत होता है। सिनेमा के निर्माता और निर्देशकों को लगता है कि हमसे बनी सिनेमाई कृति दर्शकों को पसंद आए, टिकट खरीदकर वे अगर उसे देख रहे हैं तो उनका पैसा भी वसूल हो जाए और सिनेमा के माध्यम से हमें जो संदेश दर्शकों तक पहुंचाना है वह भी उनके पास पहुंचे। सिनेमा का अंतिम उद्देश्य क्या होता है? इसे तय करने का काम सिनेमा के निर्माता, निर्देशक करते हैं। सिनेमा की कथा लेखक लिखता है, परंतु उसके माध्यम से प्राप्त संदेश और उद्देश्य को किस रूप में और कैसे दर्शकों को तक पहुंचना है यह निर्माता-निर्देशक तय करते हैं।
       फिल्में कौनसे विषयों पर बनानी हैं, उन्हें किस रूप में प्रस्तुत करना हैं, कौनसे कलाकारों का चुनाव करना हैं, फिल्मों के शूटिंग के लिए लोकेशन कौनसे चुनने हैं... आदि बातों को तय करने का अधिकार फिल्म निर्माताओं का होता है। विश्व सिनेमा में ऐसे कई निर्माता और निर्देशक हैं जिन्होंने अपनी जिंदगी को एक ही संदेश और सिद्धांत को दर्शकों तक पहुंचाने में लगाई है। अपने सिनेमाई सिद्धांतों के साथ वे कभी समझौते नहीं करते हैं। यह बात केवल निर्माता और निर्देशकों के लिए ही लागू होती है ऐसी बात नहीं, कलाकारों के लिए भी लागू होती है। ऐसे कई कलाकार भी हैं जिन्होंने अपने सिद्धांतों के विरोध में जाकर कभी सिनेमा के भीतर काम नहीं किया है। कहने का तात्पर्य यह है कि इंसानों के जिंदगी में जीने के सिद्धांत तय होते हैं और उसके तहत हम अपना जीवनानुक्रम जारी रखते हैं। फिल्में बनानेवाले निर्माता-निर्देशक भी इंसान ही है और उनके जीवन में भी सिद्धांतों की एहमीयत होती है। अर्थात् उन्हीं सिद्धांत और मूल्यों को समाज में स्थापित करने और दर्शकों तक उन्हें पहुंचाने का उनका प्रयास होता है।
       इस पाठ के पहले हम लोगों ने सिनेमा के कथा की संरचना को लेकर कई प्रकार और उपप्रकारों को लेकर विचार-विमर्श किया है साथ ही सिनेमा के जॅनर (शैली) पर भी प्रकाश डाला है। इनको पढ़ते वक्त एक बात हमें पता चलेगी कि विशिष्ट पद्धति से कथा की संरचना करते वक्त और किसी विशिष्ट जॅनर के तहत फिल्म बनाते वक्त उसके मूलभूत तत्त्व तय होते हैं। इन तत्त्वों को पालन करना पड़ता है तभी फिल्म की कथा और विषय के साथ न्याय कर सकते हैं। निर्माता-निर्देशक के खुद के सिद्धांत और मूल्य होते हैं या वह दुनिया के किसी दार्शनिक के विचारों से भी प्रभावित होता है। वह अपने सिद्धांतों और मूल्यों को सिनेमा के माध्यम से दर्शकों के सामने रखता है या वह जिन दार्शनिकों के विचारों से प्रभावित है उन विचारों को सिनेमा में अभिव्यक्त करने की कोशिश करता है। यह सबकुछ करते वक्त उसे सिद्धांत, व्यावसायिकता, मनोरंजनात्मकता, उचितता, सामाजिकता, व्यावहारिकता... आदि बातों का भी खयाल रखना पड़ता है। अर्थात् संक्षेप में कहा जाए तो फिल्म निर्माण कर्ता अपने विचार और सिद्धांत सिनेमा के माध्यम से प्रस्तुत करें परंतु मनोरंजन और व्यावसायिक नजरिए के साथ भी उसका तालमेल बिठाए या बॅलंस करें यह जरूरी होता है। यह आलेख The South Asian Academic Research Chronicle के ताजे अंक में प्रकाशित है, पढने के लिए यहां क्लिक करें - http://www.thesaarc.com/archives/January%202017/20170103.pdf