मंगलवार, 14 नवंबर 2017

‘फांस’ से उठता सवाल : खेती से किसान मन क्यों लगाए?



संजीव ने खोजी लेखन के तहत किसानों की जिंदगी पर केंद्रित उपन्यास लिखा है ‘फांस’। संजीव का केवल यहीं एक उपन्यास खोजी लेखन नहीं है इसके पहले के इनके ‘किसनगढ़ के अहेरी’, ‘सावधान! नीचे आग है’, ‘सर्कस’, ‘जंगल जहां शुरू होता है’, ‘सूत्रधार’, ‘रह गई दिशाएं इस पार’ आदि उपन्यास भी इसका परिचय देते हैं। संजीव के लेखन की यह भी एक ताकत है कि इन्होंने हर विचार, चिंतन और विषय को अलग से लिखा है, मतलब लेखन के भीतर पूनरावृत्ति नहीं है। जिस भी विषय पर लिखना शुरू किया उसको एक ही साथ, एक ही जगह पर पूर्णतः से लिखने की कोशिश की है। विषय का वैविध्य रहा है। समाज के भीतर की वास्वविकताओं को सबके सामने रखने का जरिया उपन्यास को बनाया है। संजीव के उपन्यास इसी कारण काल्पनिक कम और वास्वववादी अधिक है। ‘फांस’ पर लिखने से पहले संजीव के लेखन पर चंद पंक्तियों के साथ यह आरंभ है। मन और अंतरआत्मा ‘फांस’ पढ़ते वक्त हमारे दम को घोटने लगती है। व्यवस्था, वर्तमान सामाजिक जीवन, दलाल संस्कृति, बिचौलिए, बाजार, विकास, कॅशलेस संस्कृति, कालाधन, सरकार, राजनीति, कुर्सी, आदर्श, सशक्त भारत, समृद्ध भारत, महाशक्तिशाली भारत... आदि-आदि बातें, विचार हमारे आस-पास घूमने लगते हैं। हमारा देश तेजी से आगे बढ़ रहा है, सुनकर बहुत खुशी होती है।
जिस मिट्टी में हम लोग पले-बढ़े उससे गद्दारी कर अपने ही भोगों में लिप्त नवीन भारत के हम जैसे नागरिक उस मिट्टी के ऋण को भूल चुके हैं। ‘फांस’ को पढ़ते हुए हर जगह पर, हर समय लगता है कि हम अपराधी है। कानों में कर्कश आवाजें परदों को चिरती हुई कलेजे तक दर्दों को निर्माण करती है कि भाई तुम भी इस व्यवस्था के टूकड़ों पर पलनेवाला एक परजीवि जीव हो जो किसान का खून चुसने का भागीदार है। कुछ सालों पहले कहां जाता था कि भारत में अस्सी फिसदी किसान है और खेती पर निर्भरता है। परंतु वर्तमान में कहां जा रहा है कि भारत में साठ फिसदी किसान है और खेती पर निर्भरता है। सवाल यह उठता है कि अस्सी से साठ तक पहुंचना प्रगति की निशानी है या किसानी से हारकर किसानों ने खेती करना छोड़कर अपनी निर्भरता के लिए कोई दूसरा मार्ग ढूंढ़ लिया है। चितंक, ए.सी. में बैठे पॉलिसी मेकर और किसानों को अन्नदाता कहकर उसके दुःखों पर मरहमपट्टी कर मरने के लिए पृष्ठभूमि तैयार करनेवाला हर शख्स कुछ भी कहे या स्पष्टीकरण दें कुछ फर्क नहीं पड़ता; वास्तव यहीं है और एक वाक्य में ही बताया जा सकता है, अब किसानों का खेती से जी भर चुका है, पेट भरने के लिए दूसरा मार्ग नहीं, अतः वे मजबूरन खेती कर रहे हैं। जिस दिन उनके लिए जीने का दूसरा रास्ता मिलेगा, आर्थिक निर्भरता का दूसरा स्रोत निर्माण होगा और पेट भरने का खेती के अलावा दूसरा विकल्प खुलेगा, उस दिन किसान खेती छोड़ देगा। अस्सी से साठ फिसदी तक आना मतलब बीस फिसदी की कटौती यही बयां करती है कि इन बीस फिसदी लोगों के लिए जिंदगी जीने के दूसरे मार्ग मिल गए हैं, खेती को छोड़ दिया, बेच दिया। किसानों के लिए खेती केवल जिंदगी जीने का मार्ग नहीं है यह उसकी आदत है और यह आदत अचानक छूट जाए तो पीड़ा होती है, तकलीफ देती है। इन बीस फिसदी किसानों ने उसे सहा है और पचाया भी है। उन्हें मलाल भी है, पर दूसरी तरफ वे सुख और शांति से यह भी कहते हैं कि भाई मैंने और मेरे पुरखों ने हजारों बरसों से गुलामी सही, अब कम-से-कम हमारी अगली पीढ़ी इस गुलामी से मुक्त हो गई।
खेती से गुलामी है, जिंदगी का मिट्टी बनना है, कर्जे में मौत मिलनी है, साहूकारों के पास जमीनों के साथ अपनी आत्मा गिरवी रखनी है, आत्मा के पानी से सींचे हरे-भरे पौधे अकाल के कारण खेती में सूख जाने हैं, बेमौसमी बारिश और तूफान से खेती के भीतर फूली-फली फसल बह जानी है, तबाह होनी है, हाड़तोड़ मेहनत के बावजूद भी दो वक्त की रोटी के लिए तरसना है, दो-दो, चार-चार किलोमिटर पानी के एक घड़े के लिए भटकना है, अपने घर में गाय-भैस-बकरी होकर भी दूध के लिए तरसना है.... तो हमेशा के लिए सवाल यह उठता है कि भाई खेती में किसान मन क्यों लगाए? संजीव के ‘फांस’ को समझने के लिए किसान होना जरूरी है या किसानी से वास्ता पड़ना भी जरूरी है। हालांकि संजीव के उपन्यास का केंद्र महाराष्ट्र है; विशेषकर विदर्भ, मराठवाड़ा और खांदेश का वह हिस्सा है, जहां पर सिंचाई कम है और किसानों की आत्महत्याएं ज्यादा हो चुकी है। लगातार किसान आत्महत्याएं कर रहा है और महाराष्ट्र तथा देश के तमाम चितंक यह तय करने में लगे हैं कि हमारे प्रदेश की अपेक्षा दूसरे प्रदेशों में और राज्यों में आबादी और प्रदेश विस्तार में आंका जाए तो आत्महत्याएं ज्यादा हो रही है। मतलब नंबर एक पर कोई और है, हमारा नंबर उसके बाद का है। महाराष्ट्र में भी नरेंद्र जाधव की रिपोर्ट यहीं बताती है। आत्महत्या के कारणों में यह भी बताया गया कि खेती के लिए उठाए गए कर्जे की अपेक्षा कई अन्य कारणों से किसान अधिक आत्महत्या करता है, जैसे बेटी-बेटे की शादी का खर्चा, शराबी होना, मौज-मस्ती, बीमारी... आदि कारणों का लंबा लेखाजोखा इन विद्वानों (?) की रिपोर्टों में हैं। जैसे कोई पोस्टमार्टम करनेवाला डॉक्टर घूस लेकर रिपोर्ट बदल देता है वैसी यह रिपोर्टे। कोई विश्वसनीयता नहीं और कोई मानवीयता नहीं। इन रिपोर्ट लेखकों को पूछना चाहिए कि भाई आपने कभी शराब पी नहीं, कोई नौकरी पेशा व्यक्ति को शराब की आदत नहीं, आपने धूमधाम से अपने बच्चों की शादी नहीं की, कर्जा लेकर घर-गाड़ी नहीं खरीदी, छोटीसी बीमारी के बदले सरकारी ऑफिस से खर्चा वसूल नहीं किया, टी.ए., डी.ए. के झूठे बिल बनाकर कई बार सरकारी खजाने को लूटकर डाका नहीं डाला। सौ बहाने और सौ झूठ के बाद अपने सुखों को तलाशता नौकरशाह व्यक्ति और सौ फिसदी ईमानदारी से सेल्फ फायनांस करता भारतीय किसान स्पर्धा में कैसे टीक पाएगा? ऊपर से नौकरशाहों-पूजीपतियों को लूटने के लिए कोई है नहीं, अगर कभी लूटा भी जाए तो ऐसी कुर्सी पर बैठे हैं कि जितनी लूट हो चुकी है उससे दस गुना बहुत जल्दी वसूल कर लेते हैं। और सौ चूहें खाकर बिल्ली चली हजवाली इनकी सूरतें किसानों की आत्महत्याओं पर रिपोर्टों को लिख रही है। अगर इन कुर्सिवालों, अफसरों, नौकरशाहों, रिपोर्ट लेखकों का बस चले तो मरे हुए किसानों के शवों को आत्महत्या के अपराध मै दूबारा सजाए-मौत दे सकते हैं! आखिरकार भारत का किसान कितने सालों से कितनी बार मरता रहेगा और आगे कितनी बार मरना है?
‘भारत कृषि प्रधान देश है’ यह वाक्य बचपन से कितनी बार पढ़ा और कितनी बार सुना। यह कोई गर्व की बात नहीं है, बचपन में इसे सुनना अच्छा लगता था परंतु अब ऐसे लगता है मानो कोई इस वाक्य के साथ भद्दी-गंदी गाली दे रहा है। किसानों के लिए शोषण, लूट ही तो है। इनकी आत्महत्याओं को झूठा मानकर और सच्चाई को छिपानेवाली रिपोर्टे आएगी और छापी जाएगी। आत्महत्या इनकी कलमों से वैध्य और अवैध्य ठहराई जाएगी। पात्र और अपात्र के बीच फंसा किसान यह जान चुका है कि अपने गले में पड़े फांसी के फंदे की चिंता को छोड़कर अगली पीढ़ी को सुरक्षित करना है; अतः जैसे भी हो हमारे बच्चे किसानी नहीं करेंगे इस निष्कर्ष तक वह आ चुका है। नतीजन अस्सी से साठ फिसदी तक आना हुआ है। अर्थात् भारत के बीस फिसदी किसानों ने खेती करना छोड़ दिया है और बचे हुए बार-बार यह सवाल कर है कि आखिरकार खेती से किसान मन क्यों लगाए?
प्रस्तुत आलेख 'अपनी माटी' अप्रैल-सितंबर 2017 के अंक में प्रकाशित हुआ है। आगे पढने के लिए इस लिंक को क्लिक करें -  ‘फांस’ से उठता सवाल : खेती से किसान मन क्यों लगाए?

सोमवार, 26 जून 2017

सिनेमा की पटकथा का स्वरूप








फिल्मों के व्यावसायिक और कलात्मक नजरिए से सफल होने के लिए आधारभूत तत्त्व के नाते कथा, पटकथा और संवादों को बहुत अधिक एहमीयत है। कथा या कहानी आरंभिक तत्त्व के नाते एक सृजन प्रक्रिया होती है और इसे साहित्यकार द्वारा जाने-अनजाने अंजाम दे दिया जाता है। सृजन कार्य स्वयं के सुख के साथ समाज हित के उद्देश्य को पूरा करता है, परंतु इसका पूरा होना किसी आंतरिक प्रेरणा का फल होता है। लेकिन इन्हीं कहानियों का जब फिल्मी रूपांतर होता है तब उसका मूल फॉर्म पूरी तरीके से बदल जाता है। एक कहानी की पटकथा लिखना और फिर संवाद स्वरूप में उसे ढालना व्यावसायिक नजरिए को ध्यान में रखते हुए की गई कृत्रिम प्रक्रिया है। इसे कृत्रिम प्रक्रिया यहां पर इसलिए कह रहे हैं कि जैसे साहित्यकार कोई रचना अंतर्प्रेरणा से लिखता है वैसी प्रक्रिया पटकथा लेखन में नहीं होती है, उसे जानबूझकर अंजाम तक लेकर जाना पड़ता है। पटकथा लेखक के लिए और एक चुनौती यह होती है कि निमार्ताओं द्वारा बनाई जा रही फिल्में किसी छोटी कहानी पर बनी हो तो भी और किसी बड़े उपन्यास पर बनी हो तो भी उसे चुनिंदा प्रसंगों के साथ एक समान आकार में बनाना होता है, ताकि वह दो या ढाई घंटे की पूरी फिल्म बन सके। अर्थात् पटकथा लेखक का यह कौशल, मेहनत और कलाकारिता है, जिसके बलबूते पर वह पटकथा में पूरा उपन्यास समेट सकता है और किसी छोटी कहानी में कोई भी अतिरिक्त प्रसंग जोड़े बिना उसको पूरी फिल्म बना सकता है। फणीश्वरनाथ रेणु जी की ढाई पन्ने की कहानी ‘तीसरी कसम’ (मारे गए गुलफाम) पर बनी फिल्म ‘तीसरी कसम’ (1966) और रणजीत देसाई के उपन्यास ‘राजा रविवर्मा’ पर बनी फिल्म ‘रंगरसिया’ (2014) दोनों भी परिपूर्ण है। अर्थात् एक पटकथा का आकार कहानी से बना है और दूसरी पटकथा का आकार व्यापक उपन्यास की धरातल है। इन दोनों में भी साहित्यिक रूप से फिल्म के भीतर का रूपांतर पटकथा लेखक का कमाल माना जा सकता है। आवश्यकता भर लेना और अनावश्यक बातों को टालने का कौशल पटकथा लेखन में अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। जिस प्रकार पटकथा का लेखन और लेखक का कमाल होता है वैसे ही निर्माता-निर्देशक की परख, पैनापन और चुनाव का भी कमाल होता है। मन्नू भंड़ारी लिखती है कि "बरसों पहले मेरी कहानी ‘यहीं सच है’ पर बासुदा (बासु चटर्जी) ने फिल्म बनाने का प्रस्ताव रखा तो मुझे तो इसी बात पर आश्चर्य हो रहा था कि एक लड़की के निहायत निजी आंतरिक द्वंद्व पर आधारित यह कहानी (इसीलिए जिसे मैंने भी डायरी फॉर्म में ही लिखा था) दृश्य-माध्यम में कैसे प्रस्तुत की जाएगी भला? पर बासुदा ने इस पर ‘रजनीगंधा’ (1974) नाम से फिल्म बनाई, जो बहुत लोकप्रिय ही नहीं हुई, बल्कि सिल्वर जुबली मनाकर जिसने कई पुरस्कार भी प्राप्त किए।" प्रस्तुत आलेख Research Front  ई-पत्रिका के जनवरी-मार्च 2017 के अंक में प्रकाशित हुआ है। आगे पढने के लिए लिंक है -  http://www.researchfront.in/jan_march_2017/10.pdf

मंगलवार, 11 अप्रैल 2017

काले फन का काला धन

















"ओ मजदूर! ओ मजदूर!!
तू सब चीजों का कर्ता, तू हीं सब चीजों से दूर
ओ मजदूर! ओ मजदूर!!
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श्वानों को मिलता वस्त्र दूध, भूखे बालक अकुलाते हैं।
मां की हड्डी से चिपक ठिठुर, जाड़ों की रात बिताते हैं
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युवती की लज्जा बसन बेच, जब ब्याज चुका जाते हैं
मालिक जब तेल फुलेलों पर पानी-सा द्रव्य बहाते हैं।
पापी महलों का अहंकार देता मुझको तब आमंत्रण।"

       दिनकर जी प्रस्तुत काव्यपंक्तियां कई संदर्भों में सामने रखी जाती है। मूलतः प्रगतिवादी युग में सामाजिक समानता, अंधाधुंधी, आक्रोश, शोषण, दयनीयता, दुःख, पीड़ा, पूंजीवादिता के विरोध में उठी आवाज मजदूरों तथा मेहनतकशों के प्रति संवेदना प्रकट करती है, उसके प्रति सहानुभूति जताती है और उनमें परिवर्तन की पेक्षा करती है। कवि की चाहत और सामाजिक वास्तव में जमीन आसमान का फर्क है। समाज के लिए और समाज के भीतर के नैतिक तथा अनैतिक कार्यों के लिए कहा जा सकता है यह एक मदमस्त हाथी है और वह अपनी ही धून बाजार में चल रहा है। कोई कुछ भी कहे या पत्थर मारे इसकी मोटी चमड़ी पर विशेष फर्क नहीं पड़ रहा है। हां हो सकता है उसके गति में थोड़ा फर्क आ जाए। कुछ दिनोंपरांत वहीं मस्ती और डिलडौल। हालांकि हाथी चले बाजार कुत्ते भौंके हजारकहावत रूप में हाथी से जूड़ा यह संदर्भ हमेशा अच्छे अर्थ में इस्तेमाल होता है, लेकिन मैंने यहां पर सामाजिक अधपतन के लिए इसका इस्तेमाल कर मानो हाथी पर अन्याय किया हो। खैर दिनकर जी की ऊपरी काव्यपंक्तियों को कोट करने के पीछे मेरा उद्देश्य कोई और है। आज मंचीय कवि और सामाजिक विड़ंबना पर कठोर आघात करनेवाले कवियों में हरिओम पंवार का नाम आता है और उनकी कई कविताएं दिनकर, धूमिल, निराला, मुक्तिबोध... जैसे कवियों की विरासत को आगे बढ़ा रही है। इन कवियों की अपेक्षा हरिओम पंवार की कविताओं के संदर्भ और ओजस्विता को अलग भी किया जा सकता है परंतु बेबाकी, सामाजिक वास्तव की कड़वाहट की पोल खोलना, वीरत्व के भाव, आवाहन, चुनौतियां, प्रस्तुति शैली आदि भारतीय समाज में पल रहे आक्रोश को प्रकट करती है और यह आक्रोश असमानता, सरकारी नीतियां, पूंजीवादिता, अमीरी-गरीबी के बीच बढ़ती खाई, भ्रष्टाचार, कालाधन, झूठ-फरेब, अनैतिकताएं, मक्कारी, एहसानफरामोशी, नकारात्मकता... आदि के प्रति है। पूरा आलेख पढने के लिए रचनाकार के इस युआरएल पर क्लिक करें http://www.rachanakar.org/2017/04/blog-post_65.html 

मंगलवार, 4 अप्रैल 2017

सुदामा पांडेय ‘धूमिल’ की काव्य संवेदना का प्रतिनिधित्व करती कविता ‘मोचीराम’


मोचीराम के लिए चित्र परिणाम

     सुदामा पांड़ेय ‘धूमिल’ जी का नाम हिंदी साहित्य में सम्मान के साथ लिया जाता है। तीन ही कविता संग्रह लिखे पर सारी प्रजातांत्रिक व्यवस्था और देश की स्थितियों को नापने में सफल रहें। समकालीन कविता के दौर में एक ताकतवर आवाज के नाते इनकी पहचान रही हैं। इनकी कविताओं में सहज, सरल और चोटिल भाषा के वाग्बाण हैं, जो पने और सुननेवाले को घायल करते हैं। कविताओं में संवादात्मकता है, प्रवाहात्मकता है, प्रश्नार्थकता है। कविताओं को पते हुए लगता है कि मानो हम ही अपने अंतर्मन से संवाद कर रहे हो। समकालीन कविता के प्रमुख आधार स्तंभ के नाते धूमिल ने बहुत बढ़ा योगदान दिया है। उनकी कविता में राजनीति पर जबरदस्त आघात है। आजादी के बाद सालों गुजरे पर आम आदमी के जीवन में कोई परिवर्तन नहीं हुआ, अतः सारा देश मोहभंग के दुःख से पीड़ित हुआ। इस पीड़ा को धूमिल ने ‘संसद से सड़क तक’, ‘कल सुनना मुझे’ और ‘सुदामा पांड़े का प्रजातंत्र’ इन तीन कविता संग्रहों की कई कविताओं के माध्यम से व्यक्त किया है। उनकी कविता में पीड़ा और आक्रोश देखा जा सकता है। आम आदमी का आक्रोश कवि की वाणी में घुलता है और शब्द रूप धारण कर कविताओं के माध्यम से कागजों पर उतरता है। बिना किसी अलंकार, साज-सज्जा के सीधी, सरल और सपाट बयानी आदमी की पीड़ाओं को अभिव्यक्त करती है। धूमिल का काव्य लेखन जब चरम पर था तब ब्रेन ट्यूमर से केवल 38 वर्ष की अल्पायु में उनकी मृत्यु होती है। तीन कविता संग्रहों के बलबूते पर हिंदी साहित्य में चर्चित कवि होने का भाग्य धूमिल को प्राप्त हुआ है। "सुदामा पांड़ेधूमिल हिंदी की समकालीन कविता के दौर के मील के पत्थर सरीखे कवियों में एक है। उनकी कविताओं में आजादी के सपनों के मोहभंग की पीड़ा और आक्रोश की सबसे सशक्त अभिव्यक्ति मिलती है। व्यवस्था जिसने जनता को छला है, उसको आइना दिखाना मानों धूमिल की कविताओं का परम लक्ष्य है। …..सन 1960 के बाद की हिंदी कविता में जिस मोहभंग की शुरूआत हुई थी, धूमिल उसकी अभिव्यक्ति करनेवाले अंत्यत प्रभावशाली कवि है। उनकी कविता में परंपरा, सभ्यता, सुरुचि, शालीनता और भद्रता का विरोध है, क्योंकि इन सबकी आड़ मे जो हृदय पलता है, उसे धूमिल पहचानते हैं। कवि धूमिल यह भी जानते हैं कि व्यवस्था अपनी रक्षा के लि इन सबका उपयोग करती है, इसलि वे इन सबका विरोध करते हैं। इस विरोध के कारण उनकी कविता में एक प्रकार की आक्रामकता मिलती है। किंतु उससे उनकी कविता की प्रभावशीलता बढ़ती है। धूमिल अकविता आंदोलन के प्रमुख कवियों में से एक हैं। धूमिल अपनी कविता के माध्यम से एक ऐसी काव्य भाषा विकसित करते हैं जो नई कविता के दौर की काव्य-भाषा की रुमानियत, अतिशय कल्पनाशीलता और जटिल बिंबधर्मिता से मुक्त है। उनकी भाषा काव्य-सत्य को जीवन सत्य के अधिकाधिक निकट लाती है। उन्हें मरणोपरांत 1979 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।" प्रस्तुत आलेख 'रचनाकार' ई-पत्रिका में प्रकाशित हुआ है। आगे पढने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें - http://www.rachanakar.org/2017/04/blog-post_31.html

रचनाकार में प्रस्तुत आलेख प्रकाशित है परंतु वहां पर यह आकृतियां जोडी नहीं है अतः इसे यहां पर दे रहा हूं।

धूमिल के कविताओंकी संवेदना और ‘मोचीराम’ कविता की तुलना


धूमिल के कविताओं की मूल संवेदना ‘मोचीराम’ में है या नहीं है,की तुलना


सिनेमा के सिद्धांत (Theories of Film)

सिनेमा के सिद्धांत के लिए चित्र परिणाम 
सिनेमा का निर्माण कोई एक व्यक्ति नहीं तो पूरे विश्वभर में विभिन्न देशों में विभिन्न भाषाओं के भीतर कई लोग कर रहे हैं। फिल्म निर्माण के दौरान निमार्ताओं द्वारा कोई सिद्धांत, मूल्य, विषय, नियम, कानून तय होते हैं। प्रत्येक निर्माता-निर्देशक इन सिद्धांतों और मूल्यों के लिए अपनी पूरी जिंदगी लगा देता है। इसके पहले स्पष्ट कर चुके हैं कि सिनेमा का समाज के साथ और साहित्य की विधाओं के साथ संबंध रहा है। सिनेमा एक कला भी है। कई विधाओं और कलाओं को सिनेमा अपने भीतर समेट लेता हैं। वह उन्हें न केवल समेटता है तो ताकतवर रूप में प्रस्तुत भी करता है। खैर इन सबका समेटना और प्रस्तुत करना नीति-नियम और कानून के तहत होता है। सिनेमा के निर्माता और निर्देशकों को लगता है कि हमसे बनी सिनेमाई कृति दर्शकों को पसंद आए, टिकट खरीदकर वे अगर उसे देख रहे हैं तो उनका पैसा भी वसूल हो जाए और सिनेमा के माध्यम से हमें जो संदेश दर्शकों तक पहुंचाना है वह भी उनके पास पहुंचे। सिनेमा का अंतिम उद्देश्य क्या होता है? इसे तय करने का काम सिनेमा के निर्माता, निर्देशक करते हैं। सिनेमा की कथा लेखक लिखता है, परंतु उसके माध्यम से प्राप्त संदेश और उद्देश्य को किस रूप में और कैसे दर्शकों को तक पहुंचना है यह निर्माता-निर्देशक तय करते हैं।
       फिल्में कौनसे विषयों पर बनानी हैं, उन्हें किस रूप में प्रस्तुत करना हैं, कौनसे कलाकारों का चुनाव करना हैं, फिल्मों के शूटिंग के लिए लोकेशन कौनसे चुनने हैं... आदि बातों को तय करने का अधिकार फिल्म निर्माताओं का होता है। विश्व सिनेमा में ऐसे कई निर्माता और निर्देशक हैं जिन्होंने अपनी जिंदगी को एक ही संदेश और सिद्धांत को दर्शकों तक पहुंचाने में लगाई है। अपने सिनेमाई सिद्धांतों के साथ वे कभी समझौते नहीं करते हैं। यह बात केवल निर्माता और निर्देशकों के लिए ही लागू होती है ऐसी बात नहीं, कलाकारों के लिए भी लागू होती है। ऐसे कई कलाकार भी हैं जिन्होंने अपने सिद्धांतों के विरोध में जाकर कभी सिनेमा के भीतर काम नहीं किया है। कहने का तात्पर्य यह है कि इंसानों के जिंदगी में जीने के सिद्धांत तय होते हैं और उसके तहत हम अपना जीवनानुक्रम जारी रखते हैं। फिल्में बनानेवाले निर्माता-निर्देशक भी इंसान ही है और उनके जीवन में भी सिद्धांतों की एहमीयत होती है। अर्थात् उन्हीं सिद्धांत और मूल्यों को समाज में स्थापित करने और दर्शकों तक उन्हें पहुंचाने का उनका प्रयास होता है।
       इस पाठ के पहले हम लोगों ने सिनेमा के कथा की संरचना को लेकर कई प्रकार और उपप्रकारों को लेकर विचार-विमर्श किया है साथ ही सिनेमा के जॅनर (शैली) पर भी प्रकाश डाला है। इनको पढ़ते वक्त एक बात हमें पता चलेगी कि विशिष्ट पद्धति से कथा की संरचना करते वक्त और किसी विशिष्ट जॅनर के तहत फिल्म बनाते वक्त उसके मूलभूत तत्त्व तय होते हैं। इन तत्त्वों को पालन करना पड़ता है तभी फिल्म की कथा और विषय के साथ न्याय कर सकते हैं। निर्माता-निर्देशक के खुद के सिद्धांत और मूल्य होते हैं या वह दुनिया के किसी दार्शनिक के विचारों से भी प्रभावित होता है। वह अपने सिद्धांतों और मूल्यों को सिनेमा के माध्यम से दर्शकों के सामने रखता है या वह जिन दार्शनिकों के विचारों से प्रभावित है उन विचारों को सिनेमा में अभिव्यक्त करने की कोशिश करता है। यह सबकुछ करते वक्त उसे सिद्धांत, व्यावसायिकता, मनोरंजनात्मकता, उचितता, सामाजिकता, व्यावहारिकता... आदि बातों का भी खयाल रखना पड़ता है। अर्थात् संक्षेप में कहा जाए तो फिल्म निर्माण कर्ता अपने विचार और सिद्धांत सिनेमा के माध्यम से प्रस्तुत करें परंतु मनोरंजन और व्यावसायिक नजरिए के साथ भी उसका तालमेल बिठाए या बॅलंस करें यह जरूरी होता है। यह आलेख The South Asian Academic Research Chronicle के ताजे अंक में प्रकाशित है, पढने के लिए यहां क्लिक करें - http://www.thesaarc.com/archives/January%202017/20170103.pdf