गुरुवार, 21 जनवरी 2016

दादासाहब फालके : भारतीय सिनेमा के जनक



      भारतीय सिनेमा के जनक के नाते दादासाहब फालके के नाम का जिक्र होता है और उनकी पहली फिल्म और भारतीय सिनेमा जगत् की पहली फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ (1913) को लेकर भी कुछ बातों पर प्रकाश डाला है। यहां पर उनके योगदान पर संक्षिप्त दृष्टि डालना जरूरी है उसका कारण यह है कि आज भारतीय सिनेमा जिनकी पहल का परिणाम है वह जिन हालातों से गुजरा, उसने जो योगदान दिया उसका ऋणी है। सिनेमा को लेकर उनके जीवन से जुड़ी कुछ बातों का संक्षिप्त परिचय होना सिनेमा के पाठक को जरूरी है। दादासाहब फालके जी की कदमों पर कदम रखकर आगे भारतीय सिनेमा बढ़ा और करोड़ों की छलांगे भरने लगा है। अमीर खान, सलमान खान, शाहरूख खान के बीच चलती नंबर वन की लड़ाई या इनके साथ तमाम अभिनेता और निर्माताओं की झोली में समानेवाले करोड़ों के रुपयों में से प्रत्येक रुपैया दादासाहब जैसे कई सिनेमाई फकिरों का योगदान है। अतः तमाम चर्चाओं, विवादों, प्रशंसाओं, गॉसिपों के चलते इस इंडस्ट्री के प्रत्येक सदस्य को सामाजिक दायित्व के साथ सिनेमाई दायित्व के प्रति भी सजग होना चाहिए। अगले एक मुद्दे में सौ करोड़ी क्लब पर प्रकाश डाला है, परंतु इससे यह साबित होता नहीं कि वह फिल्म भारतीय सिनेमा का मानक हो। फिल्म इंडस्ट्री में काम करनेवाला प्रत्येक सदस्य याद रखें कि हमारे जाने के बाद हमने कौनसे कदम ऐसे उठाए हैं, जिसकी आहट लंबे समय तक सुनाई देगी और छाप बनी है। अपनी आत्मा आहट सुन न सकी और छाप नहीं देख सकी तो सौ करोड़ी कल्ब में दर्ज किए अपने सिनेमा का मूल्य छदाम भी नहीं होगा। भारतीय सिनेमा के इतिहास में क्लासिकल और समांतर सिनेमा का एक दौर भी आया जो उसकी अद्भुत उड़ान को बयां करता है। इन फिल्मों के निर्माण में कोई व्यावसायिक कसौटी थी नहीं केवल लगन, मेहनत, कलाकारिता, अभिनय, संगीत, शब्द, गीत, विषय, तकनीक, सादगी, गंभीरता... की उत्कृष्टता थी, जो सच्चे मायने में सिनेमा के जनक को सलाम था और उनके द्वारा तैयार रास्ते पर चलने की तपस्या थी। हाल ही के वर्षों में बनती कुछ फिल्मों को छोड़ दे तो केवल व्यावसायिता, सतही प्रदर्शन, सस्ते मनोंरंजन के अलावा कुछ नहीं है कहते हुए बड़ा दर्द होता है...। प्रस्तुत आलेख 'रचनाकार' ई पत्रिका में प्रकाशित हुआ है उसकी लिंक है -