शुक्रवार, 18 नवंबर 2016

फिल्म निर्देशन : तकनीक और कला


      
      फिल्म का निर्देशन करना जितना तकनीकी कार्य है उतना ही कलात्मक कार्य है। फिल्म निर्देशक निर्देशन की दिशा तय करता है कि फिल्म को कहा लेकर जाना है। मूल कहानी को निर्माता-निर्देशक जब सुनते हैं या पढ़ते हैं तब उन्हें तुरंत पता चलता है कि इस कहानी पर फिल्म बनने की संभावनाएं है या नहीं है। जब किसी कहानी में फिल्म के लिए सफलता के सूत्र मिलते हैं तब एक-दूसरे की अनुमति से उस पर कार्य होता है और विभिन्न लोगों की नियुक्तियां शुरू होती है। निर्माताओं की अनुमति के बाद निर्देशक पटकथा लेखक से पटकथा लिखवा लेता है, उसे लिखवाते वक्त उन सारी बातों को उसमें भर देता है जो कलात्मक तो हो ही पर व्यावसायिक सफलता हासिल करने की क्षमता भी रखती हो। अर्थात् निर्देशन कौशल फिल्म सृजन (निर्माण) प्रक्रिया और तकनीकी प्रक्रिया के बीच का पुल होता है जिस पर एक सफल फिल्म संवार होकर अपने मकाम तक पहुंचती है।
       फिल्म निर्माण प्रक्रिया में निर्देशन एक अलग और स्वतंत्र कार्य है परंतु आजकल देखा जा रहा है कई प्रतिभा संपन्न लोग फिल्मों का निर्माण, निर्देशन, कहानी व पटकथा लेखन, संवाद लेखन अकेले कर रहे हैं। इसका अर्थ यह है कि फिल्म के सफलता की बागौर वे अपने हाथों में रखते हैं। व्यावसायिक सफलता की सीढ़ी उन्हें पता होती है, अतः ऐसे निर्माता-निर्देशक दूसरों के बलबूते पर अपनी फिल्म को दांव पर लगाना पसंद नहीं करते हैं। कभी-कभार ऐसा भी होता है कि कहानी का लेखक कोई और होता है, निर्माता-निर्देशकों को उसकी कहानी पसंद आती है परंतु उसमें व्यावसायिक परिवर्तन की आवश्यकता होती है। लेखक से यह व्यावसायिक परिवर्तन संभव नहीं है तो वे उससे उस कहानी के अधिकार खरीद लेते हैं, अपने हिसाब से उसमें परिवर्तन करते हुए निर्देशन करते हैं। ऐसी स्थिति में लेखक से अगर छूटकारा पाना है तो सीधे उसे उसका मूल्य चुका दिया जाता है और निर्माता-निर्देशक अपने नाम से कहानी करवा देते हैं या लेखक ने ऐसा करने से मना किया तो वे उसकी अनुमति से इस कहानी से प्रभावित (Adoption) होकर इस फिल्म को बनाया जाता है, इसका जिक्र और आभार फिल्म के आरंभ में किया जाता है। ऐसी स्थितियों में निर्देशकों को मूल कहानी में परिवर्तन और अपने हिसाब से कहानी को गढ़ने तथा उसका अंत करने की अनुमति होती है। आजकल ऐसी फिल्मों का प्रचलन अधिक है। अर्थात् निर्देशन की जिम्मेदारी यह होती है कि लिखित कहानी को फिल्मी फॉर्म मे रूपांतरित करते वक्त उसे सफलता की सीढ़ी तक लेकर जाना। संपूर्ण आलेख पढने के लिए 'अपनी माटी' ई-पत्रिका की लिंक दे रहा हूं -फिल्म निर्देशन:तकनीक और कला -डॉ.विजय शिंदे http://www.apnimaati.com/2016/11/blog-post_73.html

मंगलवार, 1 नवंबर 2016

फिल्म निर्माण की प्रक्रिया

फिल्म प्रोडक्शन के लिए चित्र परिणाम
      लेखक के द्वारा लिखी कहानी से परदे पर उतरनेवाली फिल्म तक की प्रक्रिया बहुत लंबी है। यह प्रक्रिया विविध चरणों, आयामों और संस्कारों से अपने मकाम तक पहुंचती है। एक लाईन में बनी फिल्म की कहानी या यूं कहे कि दो-तीन पन्नों में लेखक द्वारा लिखी कहानी को फिल्म में रूपांतरित करना एक प्रकार की खूबसूरत कला है। इस रूपांतर से न केवल लेखक चौकता है बल्कि फिल्म के साथ जुड़ा हर शख्स चौकता है। टूकड़ों-टूकड़ों में बनी फिल्म जब एक साथ जुड़ती है तो एक कहानी का रूप धारण करती है। फिल्मों का इस तरह जुड़ना दर्शकों के दिलों-दिमाग पर राज करता है। लेखक से लिखी कहानी केवल शब्दों के माध्यम से बयान होती है परंतु फिल्म आधुनिक तकनीक के सहारे से ताकतवर और प्रभावी बनती है। "सिनेमा ने परंपरागत कला रूपों के कई पक्षों और उपलब्धियों को आत्मसात कर लिया है मसलन आधुनिक उपन्यास की तरह यह मनुष्य की भौतिक क्रियाओं को उसके अंतर्मन से जोड़ता है, पेटिंग की तरह संयोजन करता है और छाया तथा प्रकाश की अंतर्क्रियाओं को आंकता है। रंगमंच, साहित्य, चित्रकला, संगीत की सभी सौंदर्यमूलक विशेषताओं और उनकी मौलिकता से सिनेमा आगे निकल गया है। इसका सीधा कारण यह है कि सिनेमा में साहित्य (पटकथा, गीत), चित्रकला (एनीमेटेज कार्टून, बैकड्रॉप्स), चाक्षुष कलाएं और रंगमंच का अनुभव, (अभिनेता, अभिनेत्रियां) और ध्वनिशास्त्र (संवाद, संगीत) आदि शामिल हैं। आधुनिक तकनीक की उपलब्धियों का सीधा लाभ सिनेमा लेता है।" (संदर्भ विकिपिड़िया) यहां हमारा उद्देश्य सिनेमा निर्मिति का संक्षिप्त परिचय करवाना है और इस परिचय के दौरान फिल्म निर्माण के चरण और फिल्म निर्माण की प्रक्रिया अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। यहां हमारा उद्देश्य फिल्म निर्माण की प्रक्रिया किस प्रकार घटित होती है और उसकी प्रमुख सीढ़ियां कौनसी है, इस पर प्रकाश डालना है। इसकी कई छोटी-बड़ी सीढ़ियां है परंतु यहां उसमें से प्रमुख सत्रह सीढ़ियों का संक्षेप में एक क्रम के तहत विवरण है। प्रस्तुत आलेख 'रचनाकार' ई पत्रिका में प्रकाशित हुआ है उसकी लिंक है - फिल्म निर्माण की प्रक्रिया 

मंगलवार, 25 अक्तूबर 2016

सिनेमा की कथा संरचना (Narrative Structure of Film)

sholay


   सन् 1895 में विश्व सिनेमा का आगाज लिमिएर बंधुओं की फिल्म द अरायव्हल ऑफ अ ट्रेनसे हुआ और सिनेमा के दुनिया की गाड़ी भी पटरी पर चढ़ गई। आरंभिक दौर में जितने भी सिनेमा स्वरूपवाली छोटी फिल्में बनी वह उस युग की मांग और कौतूहल को बढ़ावा देनेवाली थी। सिनेमा की असली शुरुआत सिनेमा में कहानी के ढलने से आ गई। विश्व सिनेमा में आज उसकी ताकत कौनसी है, मूल्यांकन करे तो कथा (कहानी) की ओर संकेत किया जा सकता है। इसका अर्थ यह नहीं कि अन्य तत्त्व और इलिमेंट्स महत्त्वपूर्ण नहीं है; अन्य तत्त्वों का भी उतना ही महत्त्व है जितना कहानी का। परंतु अन्य तत्त्वों की जीवंतता और सजीवता फिल्में के कथा पर निर्भर होती है। इंसान के शरीर के विविध अंग हो परंतु उसमें जीव (आत्मा) न हो तो उसके अंगों का होने न होने से कोई मतलब नहीं हैं; जैसे ही उस शरीर में जीव (आत्मा) ढल जाता है वैसे ही शरीर के सभी अंगों को एहमीयत प्राप्त होती है। बिल्कुल यहीं बात सिनेमा के लिए भी लागु पड़ती है, ‘कथा’ सिनेमा के लिए जीव का कार्य करती है और अन्य सहायक बातें उसके शरीर के अंगों का कार्य करते हैं। भारतीय सिनेमा में विश्व सिनेमा से थोड़ी अलग परंपरा है यहां कथा के साथ गीत और नृत भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। यह भारतीय सिनेमा का जीव (आत्मा) तो है नहीं परंतु उसके नजदीक तो जरूर पहुंचता हैं। भारतीय सिनेमा में कथा के नाते कई कमजोर फिल्में अच्छे गीत-संगीत और नृत के बल पर सराही जा चुकी हैं। गीत-संगीत और नृत (‘साजन’, ‘आशिकी’ जैसी फिल्में) के नाते वह फिल्में कथा की कमजोरीयत को भर देती है। खैर इन फिल्मों में भी अगर कथा और ताकतवर होती तो वह हिस्सा भी भर जाता और कथा की अपेक्षा रखनेवाले दर्शकों की मांग भी पूरी होती। विश्व सिनेमा की बात करें तो गीत, कथा जैसे महत्त्वपूर्ण नहीं है। विश्व सिनेमा में गीत सहायक इलिमेंट बनकर आ जाता है और कथा ही प्रमुख होती है। 
   विश्व सिनेमा की शुरुआत कथा के अभाव में केवल दृश्यों के साथ हुई और जिस जगह पर इसके साथ कथा जुड़ी उसकी जीवंतता मुखरित हुई और दर्शक की मांग को फिल्मों ने पूरा करना शुरू किया। फिल्मों में कथा का समावेश होते ही पाठकों के लिए किताब पढ़ने का जो आनंद मिलता है वह आनंद दोगुना होने लगा। फिल्मों में दर्शक कथा सुन भी सकता था और देख भी सकता था। साहित्यिक दुनिया में कथाओं का आरंभिक अस्तित्व श्रवण (सुना जाना) ही था और फिल्मों को कथा का कानों से श्रवण के साथ देखने का आनंद लेना साहित्य के पाठकों के लिए अत्यंत प्रिय हुआ। भारतीय सिनेमा की पहली अवाक फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ (1913) बनी जिसमें पौराणिक कथा को फिल्मांकित किया था। तात्पर्य क्या है, तकनीकी अड़चनें और आवाज अभाव के चलते दादासाहब फालके ने दर्शकों के सामने एक कथा को ही परोसा, जिसे दर्शकों ने काफी सराहा। ‘आलम आरा’ (1931) ध्वनि, कथा, संगीत, नृत के साथ भारतीय सिनेमा में दाखिल हुई और दर्शकों ने इसे सर-आंखों पर लिया। ध्वनि अभाव में कथा सुनने की इंसानी मांग अवाक फिल्मों में बाधित हो रही थी वह सवाक फिल्मों में ध्वनि के जुड़ते ही पूरी हो गई। कथा सुनने की सालों से चलती आ रही इंसानी दुनिया की परंपरा को इस पहल से मानो पर लग जाते हैं। कुलमिलाकर कहा जा सकता है कथा ने दर्शकों की मांग को पूरा किया और सिनेमा के एहमीयत को बनाए भी रखा है। सिनेमा में कथा का होना अनिवार्य तो है ही परंतु उसकी उपस्थिति का भी एक पॅटर्न और फॉर्म है, उसकी एक संरचना (Structure) है। सिनेमा की कथा उस संरचना के साथ जब बन जाती है तो दो-ढाई घंटे की फिल्म दर्शकों को अलग दुनिया में लेकर जा सकती है। कथा के नियमों और कानून का पालन हो जाए तो फिल्मों में कथा दर्शकों को अद्भुत आनंद दे सकती है और सिनेमाई संकल्प तथा उद्देश्य की पूर्ति भी हो सकती है। सिनेमा की कथा संरचना यह आलेख Research Front ई-पत्रिका के प्रकाशित हो चुका है। संपूर्ण आलेख पढने हेतु उसकी लिंक दे रहा हूं -
http://www.researchfront.in/22%20JULY-SEPT%202016/17.pdf 

रविवार, 7 अगस्त 2016

भारतीय सिनेमा का आरंभ


 

    विश्व सिनेमा की जैसी व्यापकता है वैसे ही भारतीय सिनेमा जगत् भी व्यापक और विस्तृत है। आशियाई देशों में बहुत बड़ा और ताकतवर देश के नाते भारत की पहचान बनती गई। इस पहचान के बनते-बनते भारत विज्ञान, कृषि, उद्योग आदि क्षेत्रों में उठता गया। कलकत्ता, मुंबई, दिल्ली, मद्रास जैसे बड़े शहर और विकसित होते गए और इन शहरों में भारतीय जनमानस के लिए रोजगार के कई नवीन मार्ग खुलने लगे। भारतीय फिल्म इंडस्ट्री के कई केंद्र बनते गए और उसमें मुंबई हॉलीवुड़ की धरातल पर बॉलीवुड़ के नाते उभरता गया। अन्य राज्यों के प्रमुख शहरों में भी फिल्म इंडस्ट्री का विकास हुआ था परंतु वे शहर अपने राज्य की भाषा में बनती फिल्मों के विकास में जुटते गए और इधर मुंबई के भौगोलिक परिदृश्य और भारत की आर्थिक राजधानी के पहचान बनने के कारण भारतीय फिल्म इंडस्ट्री को मुंबई से ही पहचान मिलने लगी। न केवल हिंदी और मराठी तो अन्य भाषाओं को भी भारतीय मंच पर प्रदर्शित करने का केंद्र मुंबई बनता गया। आज आधुनिक तकनीक और ऑड़ियो रूपांतरण के कारण क्षेत्रीय भाषाओं के कलाकारों और तकनीशियनों के लिए बॉलीवुड़ के दरवाजे खुल चुके हैं। तकनीक के चलते देशीय और क्षेत्रीय सीमाएं धुंधली पड़ती गई। जैसे भारत में फिल्म इंडस्ट्री ने भाषाई सीमाओं को तार-तार किया वैसे ही वैश्विक स्तर पर देशीय सीमाएं तार-तार हो गई और भारत के किसी भी भाषा में काम करनेवाले व्यक्ति के लिए विश्व सिनेमा के दरवाजे खुलते गए। वैसे ही विश्व सिनेमा भी भारतीय सिनेमा के तेजी से बढ़ते कदमों से चकित हुआ। यहां तक कि विश्व सिनेमा के मंच पर धूम मचानेवाले कलाकारों के मन में भारतीय फिल्मों में काम करने की इच्छा पैदा होने लगी। दुनिया के ताकतवर फिल्म इंडस्ट्रियों में बॉलीवुड़ की गिनती होती है। इसकी व्यावसायिकता और कलात्मक सफलता को देखकर दुनियाभर के फिल्मी जानकार बॉलीवुड़ की सराहना करते थकते नहीं है। व्यावसायिक नजरिए से हॉलीवुड़ को टक्कर देने का दमखम भारतीय सिनेमा रखता है। व्यावसायिक तथा कलात्मक नजरिए से विश्व मंच पर भारतीय सिनेमा और क्रिकेट की दुनिया ने बड़ी तेजी से मजबूती के साथ कदम रखे हैं। दुनिया में आज एक साल के भीतर लगभग 1,000 हजार फिल्में बनानेवाली कोई और इंडस्ट्री नहीं है। दिनों के हिसाब से सोच लें तो एक दिन के लिए तीन फिल्में बनना हमें भी चौंका देता है। अनेक भाषाओं के बहाने भारत में फिल्म इंडस्ट्री के भीतर कई लोग नसीब अजमाने के लिए आते हैं। इस ओर उठता प्रत्येक कदम भारतीय सिनेमा के मजबूती का कारण भी बनता है। संपूर्ण आलेख पढने के लिए 'अपनी माटी' ई-पत्रिका की लिंक दे रहा हूं - भारतीय सिनेमा का आरंभ http://www.apnimaati.com/2016/08/blog-post_39.html

बुधवार, 13 जुलाई 2016

विश्व सिनेमा के इतिहास का विहंगावलोकन



28 दिसंबर, 1895 में आयोजित पहले फिल्मी शो की देन लिमिएर बंधुओं की रही। द अरायव्हल ऑफ अ ट्रेनउनकी पहली फिल्म बनी और सिनेमाटोग्राफी मशीन के सहारे बाद में उन्होंने कई छोटी-छोटी फिल्मों को दिखाना शुरू किया। उनके इन दृश्यों में कॅमरा एक ही जगह पर सेट करके फिल्मांकन होता था, उसमें कई कमियां थी परंतु पूरे विश्व में विविध जगहों पर हो रहे उनके प्रदर्शन और उसे देख विद्वान और लोगों के आकर्षण तथा आश्चर्य का कोई पारावार नहीं था। इन फिल्मों का प्रदर्शन होता था उससे पहले विभिन्न देशों के अखबारों और उन शहरों में उसका प्रचार-प्रसार जोरशोर से होता था कि आपके शहरों मे सदी के सबसे बड़े चमत्कार का प्रदर्शन होने जा रहा है। इसका परिणाम यह हुआ कि शौकिन, जिनके पास पैसा था वे, कौतुहल रखनेवाले, वैज्ञानिक, पत्रकार, चिंतक, साहित्यकार तथा सभी वर्गों के लोग इस चमत्कार को आंखों से देखने तथा उसका साक्षी होने के लिए उपस्थित रहा कर रहे थे और सच मायने में चकित भी हो रहे थे। तभी वैज्ञानिक, चिंतक, इस विषय में रुचि रखनेवालों के साथ बाकी सब ने भी यह पहचान लिया था कि इसतरह से परदे पर चलते-फिरते चित्रों को देखना सच्चे मायने में अद्भुत है और इस तकनीक में असीम संभावनाएं भी है, भविष्य में यह तकनीक सचमुच सदी का सबसे बड़ा चमत्कार और अद्भुत खोज साबित होगी बता रही थी। आज विश्व सिनेमा जिन स्थितियों में है उससे आरंभ के समीक्षक और विद्वानों ने कहीं बात की सच्चाई साबित भी होती है। आज सिनेमा का भविष्य और ताकतवर, उज्ज्वल होने की संभावनाएं दिख रही है। नवीन तकनीकों के चलते सामान्य लोगों तक वह और बेहतर रूप में आसानी के साथ पहुंचेगा।
       मूक फिल्मों से सवाक फिल्मों तक का सफर तय करते तथा आरंभिक सिनेमाई विकास की गति धीमी थी। इसके तकनीकों को लेकर शोध जारी था। आरंभिक तीस-पैंतीस सालों तक इसके विकास और तकनीक परिवर्तन की गति भी धीमी थी पर लोगों में उत्साह ज्यादा था। जैसे ही फिल्मों में कहानी ढली तथा आवाज के साथ संगीत जुड़ा और वह रंगीन हो गया तब मानो सिनेमा में चार चांद लग गए। इसके बाद सिनेमा के विकास और तकनीकों में भी अद्भुत परिवर्तन आ गया। आज विश्व सिनेमा में जितनी भी बड़ी खोज हो चुकी वह सारी भारतीय सिनेमा जगत में देखी जा सकती है। उससे हम कल्पना कर सकते हैं कि 1895 से 1930 तक का सिनेमाई सफर धीरे-धीरे और वहां से आगे आज-तक 85 वर्षों में कितना परिवर्तित हो गया। सरसरी नजर से कहे तो केवल पचास वर्षों में इसमें इतना परिवर्तन आ गया कि जिससे पूरी दुनिया चकित है। मनुष्य की ज्यादा से ज्यादा लंबी जिंदगी सौ वर्ष भी मानी जाए तो सिनेमा निर्माण और उसका चरम पर पहुंचना एक इंसान के लिए उसकी आंखों देखी है। आज-कल तो यह तकनीकें इतनी आसान हो गई है कि आप केवल कॅमरे और कंप्युटर के बलबूते पर बहुत और बहुत अच्छी फिल्म बना सकते हैं। ईरानी नव सिनेमा के प्रणेता जाफर पनाहिने इसका उदाहरण है। ‘द व्हाईट बलुन’ (1995), ‘द सर्कल’ (2000), ‘ऑफसाईड’ (2006) जैसी ईरानी फिल्में उन्होंने बनाई तो न केवल उनके देश में तो विश्व सिनेमा में मानो धमाका हो गया। जिन विषयों और तकनीकों को उन्होंने उठाया उससे उनकी सरकार परेशान हो गई उन पर फिल्में बनाने के लिए पाबंदी लगवाई गई। फिर भी नए तकनीकों के सहारे बिना पैसा लगाए उन्होंने पाबंदी के बावजूद भी इसे बनना जारी रखा। ‘दिस इज नॉट अ फिल्म’ (2011), ‘क्लोज्ड कर्टन’ (2013) जैसी फिल्मों ने इनके दिमाग के तारों को खोल दिया। 2015 में आयोजित कॉन फिल्म समारोह में इनकी फिल्म ‘टॅक्सी’ (2015) को पुरुस्कृत किया जाना बताता है कि दुनिया की कोई भी ताकत किसी को भी फिल्में बनाने से और उसे प्रदर्शित करने से रोक नहीं सकती। कुछ ही दिनों में बिल्कुल कम लागत में केवल एक कॅमरे से और कंप्युटर तकनीक से बनी ‘टॅक्सी’ सम्मानित हो सकती है तो यह बहुत छोटा सिनेमाई इतिहास बहुत बड़ी ताकत दिखा देता है साथ ही निकट भविष्य में प्रत्येक व्यक्ति के लिए निर्माण क्षेत्र खुलने का भी संकेत देता है।
       यहां विश्व सिनेमा का विहंगावलोकन है। पाठक यह मानने की भूल ना करें कि यह संपूर्ण इतिहास है, परिपूर्ण इतिहास है। यह इतना बड़ा क्षेत्र है कि इस पर कई किताबें लिखी जा सकती है। यह एक सागर के बूंद में से छोटे हिस्से को पकड़ने जैसा है। हमारी आंखें अगर खुली है तो हमारे आस-पास इससे जुड़ी कई बातें देखने और पढ़ने को मिलेगी। सरसरी नजर से इसे केवल एक विहंगावलोकन ही माने।
       विश्व में कई देश हैं और कई भाषाएं भी है। फिल्म इंडस्ट्री भी इस तरह से विस्तृत और व्यापक है। फिल्म मनुष्यों के लिए मानो भूतकाल को दुबारा जीवंत करना, यथार्थ से परिचित होना और भविष्य में ताक-झांक करने जैसा है। अपने ही जीवन से जुड़ी घटनाएं एक साथ दो-ढाई घंटे मे परदे पर दृश्य रूप और ध्वनि के साथ साकार होना तीनों लोकों (भूत-वर्तमान-भविष्य) का सफर करने जैसा ही है। इंसान ने सिनेमा को जादू-सा पाया और दुनिया की वास्तविकताओं, कल्पनाओं को एक ही जगह पर देख लिया और उसमें से बहुत कुछ अपनी झोली में भरना चाहा। प्रस्तुत आलेख 'Research Front' ई-पत्रिका के जनवरी-मार्च 2016 के अंक में प्रकाशित हुआ है। आगे पढने के लिए उसकी लिंक है http://www.researchfront.in/20%20JAN-MARCH%202016/11.pdf