शुक्रवार, 24 अप्रैल 2015

फिल्मी अदाकारों को पुनर्निर्माण का आवाहन करती कहानी ‘मोहन दास’

युवक और बी.ए..jpg दिखाया जा रहा है
        भारत युवकों का देश है। सबसे ज्यादा युवक भारत में हैं; अतः इनके बल पर भविष्य के भारत की कल्पना की जाती है। भारत के महाशक्ति बनने की कल्पना भी की जा रही है। भविष्य में भारत महाशक्ति बनेगा पर कितने सालों में इसका भरौसा नहीं। भूतपूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने 2020 का समय एक चर्चा के दौरान बताया था। लेकिन आज हम जिन स्थितियों में हैं वहां तो यह संभावनाएं नहीं दिख रही है कि भारत 2020 तक महाशक्ति का सरताज अपने सर पहने। इस लेख में भारतीय महासत्ता या विकास की गति का आकलन करना मेरा उद्देश्य नहीं है, मेरा उद्देश्य यह है कि भारत के पूर्ण विकास और शक्तिमान बनने के पूर्व और बनने के बाद क्या हमारे देश के युवक सुखी होंगे? समाधानी होंगे? सबके हाथों को काम मिलेगा? गरीबी दूर होगी? भ्रष्ट्राचार खत्म होगा? नौकरशाहों की दादागिरी खत्म होगी? देश की पुलिस समाजहित के लिए काम करेगी? भारतीय गांवों का दृश्य बदलेगा? शिक्षितों कि शिक्षा का उचित मूल्य होगा? शिक्षा व्यवस्था के ढांचे को बदला जाएगा? विद्यार्थियों पर शिक्षा के माध्यम से किए जाने वाले प्रयोग बंद होंगे? और एक स्थायी, ठोस शिक्षा व्यवस्था बनेगी?
       अपने आस-पास को जब हम देखते हैं तब कई लोग चिंताओं में घिरे नजर आते हैं। सबकी चिंता हम पकड़ पाए या न पाए पता नहीं पर जो दिखता है वह भयानक है। एक वर्ग वह है जो कहीं न कहीं कोई नौकरी कर रहा है, महीने-दर-महीने उसके घर में पैसे आ रहे हैं। कोई उद्योग-व्यापार कर रहा है, छोटा-बढ़ा ही पर कर रहा है और उसके पास पैसे आ रहे हैं। अर्थात् जिनके पास किसी-न-किसी रूप में पैसे आ रहे हैं उनकी जिंदगी का गुजर-बसर हो रहा है। इन्हें शायद ही कोई शिकायत रहती है, अपने आस-पास की कमियों के लिए। अगर शिकायत रही भी तो वह उग्र-विद्रोहकारी नहीं होते, बस स्वर रहेगा शिकायत का। दूसरा वर्ग वह है जिन्हें रोज अपनी रोटी के लिए मेहनत करनी पड़ती है, पानी पीने के लिए रोज कुआं खोदना पड़ता है। अभावों से भरी जिंदगी, रोज की लड़ाई और संघर्ष के चलते दुनिया की ओर आस लगाए बैठे हैं, हाथ के लिए कुछ काम मिलेगा इसलिए। बेईमानी की रोटी ये खाना नहीं चाहते और अपने देश में इन्हें ईमानदारी से रोटी कोई खाने देता नहीं। क्या करें? किसी तरह जिंदगी घसिटती जा रही है। हजारों गालियां खाकर, अपमान सहकर, दयनीयता और पीड़ाओं का घुंट पीकर पेट के लिए, जिंदगी की ज्योत जलाए रखने के लिए सब सह रहे हैं। इनके भी परिवार हैं, बीवी-बच्चे हैं। कैसे रह रहे हैं? कैसे पढ़ रहे हैं? पढ़ने के बाद क्या करेंगे? क्या मिलेगा?
      यह अंश मेरे नए आलेख का है। यह आलेख उदयप्रकाश की लंबी कहानी 'मोहनदास' और उस पर बनी फिल्म पर केंद्रित है। पूरा आलेख अपनी माटी में प्रकाशित हुआ है उसकी लिंक आगे दे रहा हू सिनेमा : फिल्मी अदाकारों को पुनर्निर्माण का आवाहन करती कहानी 'मोहनदास'


बुधवार, 1 अप्रैल 2015

किसान : सौत का बेटा

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          सरकारें बदली, पार्टियां बदली पर देशी किसान के हालत नहीं बदल रहे हैं। आए दिन और एक आत्महत्या की खबरें आ रही है। करें भी तो क्या करें, यह सिलसिला कब रूकेगा? कहां रूकेगा? या युं ही हमारे देश का किसान मरता रहेगा? प्रश्न यह उठता है कि इसे मरना कैसे कहां जाए? इसे आत्महत्या कैसे कहे?... यह तो हत्याएं है! यह तो खून है जो दिन दहाड़े हमारे देश के किसानों का हो रहा है। ‘खेती हमारे देश का आधार है’ कितना सपाट और असंवेदनशील वाक्य है। हजारों ने लाखों बार लिखा, उच्चारित किया।
          हमने शेखचिल्ली की कहानी बचपन में पड़ी थी जिसमें वह जिस डाल को काटना चाह रहा है उस पर ही बैठकर कुल्हाड़ी चला रहा है। अब हमें नहीं लगता कि देश का आधार बनी खेती और किसानी को हम कटवाने पर तुले हैं? वास्तविकता यह है कि हमारे देश में किसान अब खेती नहीं करना चाहता है। उसके सामने विकल्प उपलब्ध नहीं इसलिए वह मजबूरी में खेती कर रहा है। उसे अगर पूछे कि तुम अपने बच्चों को और अगली पीढ़ी को क्या बनाओगे तो वह साफ शब्दों में कहेगा कि किसानी छोड़कर उसे मैं कुछ भी बनाऊंगा। किसानों की यह मंशाएं वास्तविकता में उतर रही है। 
         यह आलेख रचनाकार ई-पत्रिका में प्रकाशित है। राजनीतिक और लोकतत्र की उपेक्षा सहते किसानी पर प्रकाश डालनेवाला पूरा आलेख पढने के लिए  लिंक दे रहा हूं - आगे पढ़ें: रचनाकार: विजय शिंदे का आलेख - किसान : सौत का बेटा