शुक्रवार, 24 अप्रैल 2015

फिल्मी अदाकारों को पुनर्निर्माण का आवाहन करती कहानी ‘मोहन दास’

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        भारत युवकों का देश है। सबसे ज्यादा युवक भारत में हैं; अतः इनके बल पर भविष्य के भारत की कल्पना की जाती है। भारत के महाशक्ति बनने की कल्पना भी की जा रही है। भविष्य में भारत महाशक्ति बनेगा पर कितने सालों में इसका भरौसा नहीं। भूतपूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने 2020 का समय एक चर्चा के दौरान बताया था। लेकिन आज हम जिन स्थितियों में हैं वहां तो यह संभावनाएं नहीं दिख रही है कि भारत 2020 तक महाशक्ति का सरताज अपने सर पहने। इस लेख में भारतीय महासत्ता या विकास की गति का आकलन करना मेरा उद्देश्य नहीं है, मेरा उद्देश्य यह है कि भारत के पूर्ण विकास और शक्तिमान बनने के पूर्व और बनने के बाद क्या हमारे देश के युवक सुखी होंगे? समाधानी होंगे? सबके हाथों को काम मिलेगा? गरीबी दूर होगी? भ्रष्ट्राचार खत्म होगा? नौकरशाहों की दादागिरी खत्म होगी? देश की पुलिस समाजहित के लिए काम करेगी? भारतीय गांवों का दृश्य बदलेगा? शिक्षितों कि शिक्षा का उचित मूल्य होगा? शिक्षा व्यवस्था के ढांचे को बदला जाएगा? विद्यार्थियों पर शिक्षा के माध्यम से किए जाने वाले प्रयोग बंद होंगे? और एक स्थायी, ठोस शिक्षा व्यवस्था बनेगी?
       अपने आस-पास को जब हम देखते हैं तब कई लोग चिंताओं में घिरे नजर आते हैं। सबकी चिंता हम पकड़ पाए या न पाए पता नहीं पर जो दिखता है वह भयानक है। एक वर्ग वह है जो कहीं न कहीं कोई नौकरी कर रहा है, महीने-दर-महीने उसके घर में पैसे आ रहे हैं। कोई उद्योग-व्यापार कर रहा है, छोटा-बढ़ा ही पर कर रहा है और उसके पास पैसे आ रहे हैं। अर्थात् जिनके पास किसी-न-किसी रूप में पैसे आ रहे हैं उनकी जिंदगी का गुजर-बसर हो रहा है। इन्हें शायद ही कोई शिकायत रहती है, अपने आस-पास की कमियों के लिए। अगर शिकायत रही भी तो वह उग्र-विद्रोहकारी नहीं होते, बस स्वर रहेगा शिकायत का। दूसरा वर्ग वह है जिन्हें रोज अपनी रोटी के लिए मेहनत करनी पड़ती है, पानी पीने के लिए रोज कुआं खोदना पड़ता है। अभावों से भरी जिंदगी, रोज की लड़ाई और संघर्ष के चलते दुनिया की ओर आस लगाए बैठे हैं, हाथ के लिए कुछ काम मिलेगा इसलिए। बेईमानी की रोटी ये खाना नहीं चाहते और अपने देश में इन्हें ईमानदारी से रोटी कोई खाने देता नहीं। क्या करें? किसी तरह जिंदगी घसिटती जा रही है। हजारों गालियां खाकर, अपमान सहकर, दयनीयता और पीड़ाओं का घुंट पीकर पेट के लिए, जिंदगी की ज्योत जलाए रखने के लिए सब सह रहे हैं। इनके भी परिवार हैं, बीवी-बच्चे हैं। कैसे रह रहे हैं? कैसे पढ़ रहे हैं? पढ़ने के बाद क्या करेंगे? क्या मिलेगा?
      यह अंश मेरे नए आलेख का है। यह आलेख उदयप्रकाश की लंबी कहानी 'मोहनदास' और उस पर बनी फिल्म पर केंद्रित है। पूरा आलेख अपनी माटी में प्रकाशित हुआ है उसकी लिंक आगे दे रहा हू सिनेमा : फिल्मी अदाकारों को पुनर्निर्माण का आवाहन करती कहानी 'मोहनदास'


बुधवार, 1 अप्रैल 2015

किसान : सौत का बेटा

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          सरकारें बदली, पार्टियां बदली पर देशी किसान के हालत नहीं बदल रहे हैं। आए दिन और एक आत्महत्या की खबरें आ रही है। करें भी तो क्या करें, यह सिलसिला कब रूकेगा? कहां रूकेगा? या युं ही हमारे देश का किसान मरता रहेगा? प्रश्न यह उठता है कि इसे मरना कैसे कहां जाए? इसे आत्महत्या कैसे कहे?... यह तो हत्याएं है! यह तो खून है जो दिन दहाड़े हमारे देश के किसानों का हो रहा है। ‘खेती हमारे देश का आधार है’ कितना सपाट और असंवेदनशील वाक्य है। हजारों ने लाखों बार लिखा, उच्चारित किया।
          हमने शेखचिल्ली की कहानी बचपन में पड़ी थी जिसमें वह जिस डाल को काटना चाह रहा है उस पर ही बैठकर कुल्हाड़ी चला रहा है। अब हमें नहीं लगता कि देश का आधार बनी खेती और किसानी को हम कटवाने पर तुले हैं? वास्तविकता यह है कि हमारे देश में किसान अब खेती नहीं करना चाहता है। उसके सामने विकल्प उपलब्ध नहीं इसलिए वह मजबूरी में खेती कर रहा है। उसे अगर पूछे कि तुम अपने बच्चों को और अगली पीढ़ी को क्या बनाओगे तो वह साफ शब्दों में कहेगा कि किसानी छोड़कर उसे मैं कुछ भी बनाऊंगा। किसानों की यह मंशाएं वास्तविकता में उतर रही है। 
         यह आलेख रचनाकार ई-पत्रिका में प्रकाशित है। राजनीतिक और लोकतत्र की उपेक्षा सहते किसानी पर प्रकाश डालनेवाला पूरा आलेख पढने के लिए  लिंक दे रहा हूं - आगे पढ़ें: रचनाकार: विजय शिंदे का आलेख - किसान : सौत का बेटा

मंगलवार, 3 मार्च 2015

उप राष्ट्रपति के हाथों डॉ. नरेंद्र दाभोलकर जी के हिंदी अनुवादित पुस्तकों का विमोचन

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नई दिल्ली - 27 फरवरी 
      डॉ. नरेंद्र दाभोलकर किसी परिचय के मोहताज नहीं है। अंधविश्वास उन्मूलन के लिए अपना जीवन दांव पर लगाना और उसके लिए अंत तक लड़ाई करना कोई छोटी बात नहीं है। वे केवल खुद लड़े नहीं तो महाराष्ट्र में एक ऐसा बड़ा संगठन खड़ा किया जो केवल महाराष्ट्र के लिए नहीं तो पूरे भारत में खड़ा होने की जरूरत है। हमारे देश समाज में ऐसे कई झुठ और पाखंड़ खड़े किए हैं कि जिससे आम आदमी का शोषण हो रहा है, उसे लूटा जा रहा है। किसी को लगता नहीं कि हमारे देश की प्रगति में ये सारे पाखंड़ बाधक है? डॉ. नरेंद्र दाभोलकर जी को लगा और अपने निजी जीवन के सुख और भोगों को त्याग कर एक आदमी विवेक और वैज्ञानिक दृष्टि के साथ समाज में वह दृष्टि लाने के लिए प्रयास करता रहा। कई दोस्त, साथी-संगी, लोग जुड़ते गए और एक बड़ा कारवां बना। अंधविश्वास उन्मूलन का कानून महाराष्ट्र में उनके बलिदान के पश्चात् बना। जिसके लिए जिंदगी भर लड़ते रहे उसे मृत्यु के बाद बनाने की अनुमति दी महाराष्ट्र सरकार ने। सभी राजनीतिक लोग और दल उनके कानून को स्वीकारते-मानते तो थे, इसकी जरूरत महसूस करते थे, परंतु अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए चुप थे। वे भूल चुके थे कि इससे सामाजिक हित दांव पर लग रहा है। शायद डॉ. दाभोलकर जी के मृत्यु के पश्चात् महाराष्ट्र सरकार को शर्म महसूस हो गई और हरकत में आकर विधान सभा और विधान परिषद के दोनों सदनों में से अनुमति देकर कानूनी स्वीकृति दी। अंधविश्वास उन्मूलन कानून को कानूनी स्वीकृति। हमारे देश में बहुत बड़ी विड़ंबना यह है कि किसी भी अच्छे कार्य के लिए कानूनी ठप्पे की आवश्यकता होती है और गैरकानूनी कार्य बिना किसी ठप्पे के कानूनी इजाजत और सरकारी मान्यता के तहत चलते हैं!
      डॉ. नरेंद्र दाभोलकर जी ने लगभग एक दर्जन किताबें इसी विषय से जुड़कर लिखी, ‘साधनापत्रिका को चलाया, ‘अंधश्रद्धा निर्मूलन वार्तापत्रको चलाया। जहां संभव हो वहां लिखते रहें, बोलते रहें, भाषण करते रहें; केवल सामाजिक हित के लिए। परिवार का सोचा नहीं, बच्चों का सोचा नहीं, अपने बारे में भी सोचा नहीं। ऐसे कई लोग उनके साथ जुड़ते गए जो अपने बारे में सोचना छोड़कर समाज का भला चाहते हैं। केवल एक ही उद्देश्य समाज की बंद आंखें खुल जाए। मूल मराठी किताब जिसमें डॉ. दाभोलकर जी के संपूर्ण तत्त्व, विचार और सिद्धांतों का सार है, वह है – ‘तिमिरातुनी तेजाकडेअंधेरे से प्रकाश की ओर; जिसमें विचार, आचार और सिद्धांत तीन खंड़ है। हिंदी जगत् की प्रमुख प्रकाशन संस्था राजकमल ने इसे हिंदी में लाकर बहुत बड़ा सामाजिक कार्य किया है। मूल किताब को हिंदी के भीतर तीन खंड़ों में अलग-अलग रूप से प्रकाशित किया है। अंधविश्वास उन्मूलनः विचार (खंड़ - 1), अंधविश्वास उन्मूलनः आचार (खंड़ - 2), अंधविश्वास उन्मूलनः सिद्धांत (खंड़ - 3) यह तीन किताबें 27 फरवरी, 2015 को भारत के उपराष्ट्रपति डॉ. मो. हामिद अंसारी के शुभ हाथों से उपराष्ट्रपति भवन के कॉन्फरंस हॉल में विमोचित की गई।
 
            7. अनुवादक डॉ. चंदा गिरीश, डॉ. विजय शिंदे, संपादक डॉ. सुनिलकुमार लवटे जी के साथ हिंदी के श्रेष्ठ समीक्षक नामवर सिंह और मराठी के ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त लेखक भालचंद्र नेमाडे.jpg दिखाया जा रहा है
       इस प्रकाशन दौरान हिंदी के प्रसिद्ध समीक्षक नामवर सिंह, ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त मराठी के लेखक भालचंद्र नेमाडे, राजकमल के प्रमुख अशोक माहेश्वरी, अलिंद माहेश्वरी, सांसद हुसेन दलवाई, गांधी स्मारक की संचालिका मणिमाला जी, तीनों किताबों के संपादक डॉ. सुनिल कुमार लवटे, अनुवादक डॉ. विजय शिंदे, डॉ. चंदा गिरीश, डॉ. प्रकाश कांबळे, अंधश्रद्धा निर्मूलन के प्रमुख अविनाश पाटिल, सुधिर निबांळकर और डॉ. नरेंद्र दाभोलकर जी की बेटी मुक्ता दाभोलकर के साथ तमाम मीड़िया कर्मी और विज्ञानवादी विवेकवादी प्रतिष्ठित उपस्थित थें।
      7. अनुवादक डॉ. चंदा गिरीश, डॉ. प्रकाश कांबळे, डॉ. विजय शिंदे, संपादक डॉ. सुनिलकुमार लवटे जी के साथ हिंदी के श्रेष्ठ समीक्षक नामवर सिंह और मराठी के ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त लेखक भालचंद्र नेमाडे.jpg दिखाया जा रहा है 
      डॉ. नरेंद्र दाभोलकरमहाराष्ट्र अंधश्रद्धा निमूर्लन समितिके कार्य के जरिए न सिर्फ महारष्ट्र में अपितु समूचे भारत वर्ष में प्रगतिमूलक आचार, विचार और सिद्धांत के जरिए चितंक और कृतिशील सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में परिचित है। सन् 1989 में समिति की स्थापना की और उसके आधार पर महाराष्ट्र के कोने-कोने में अंधविश्वास के खिलाफ अलख जगाया। वैसे महाराष्ट्र में समाजसुधारकों की और सुधारवादी विचार, उपक्रम और गतिविधियों की लंबी परंपरा है। उसके चलते महाराष्ट्र में प्रगतिशील माहौल में महात्मा ज्योतिबा फुले, सुधारककार गोपाल गणेश आगरकर, लोकहितवादी गोपाल हरि देशमुख, महर्षि विठ्ठल रामजी शिंदे, महर्षि धोंडों केशव कर्वे, राजर्षि शाहू महाराज, डॉ. बाबासाहेब आंबेड़कर, संत गाड़गेबाबा, स्वातंत्रवीर सावरकर, प्रबोधनकार ठाकरे आदि ने अंधविश्वास उन्मूलन में बड़ा योगदान दिया है। धर्म, ईश्वर जातिभेद, स्त्री-पुरुष समानता, स्त्री शिक्षा, विषमता, शोषण, रूढ़ि-परंपरा आदि के संदर्भ में इन सुधारकों ने बड़ी भूमिका निभाई है। इसके चलते जाति-धर्म निरपेक्षता, स्वातंत्र, समता, बंधुता, लोकतंत्र, विज्ञाननिष्ठा, विवेकवाद जैसे जीवनमूल्य यहां अपनी जड़े जमा पाए हैं। यहीं कारण है कि भारत वर्ष में महाराष्ट्र की पहचान अग्रणी, कृतिशील राज्य के रूप में हैं। 
       8. अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के अध्यक्ष अविनाश पाटिल, कोषाध्यक्ष सुधिर निंबाळकर, मुक्ता दाभोळकर, भालचंद्र नेमाडे और नामवर सिंह जी.jpg दिखाया जा रहा है 
      स्वातंत्र्योत्तर काल में इस परंपरा का निर्वाह करते हुए डॉ. नरेंद्र दाभोलकर की दूरदृष्टि, संगठन कौशल, कार्य की निरंतरता, उपक्रमशीलता, संयोजन कुशलता के कारण महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति ने विवेकवादी विज्ञाननिष्ठ समाज रचना का सपना देखा। सभी जाति, धर्म, तबके के कार्यकर्ताओं का निर्माण, वैचारिक रूप से समान संगठनों की एकता, पत्रकारिता, प्रकाशन, माध्यम, प्रबोधन, लोकजागरण - क्या नहीं किया डॉ. नरेंद्र दाभोलकर जी ने। यहीं कारण है कि वे धर्मांध, जातिवादी, पाखंड़ी तत्त्वों के लक्ष बने और अज्ञात बंधूकधारियों ने उनकी 20 अगस्त, 2013 में निर्मम हत्या कर दी। हत्यारों का लक्ष्य डॉ. दाभोलकर के संगठन और विचार को कुचलना था। हुआ उलटा। उनकी हत्या की प्रतिक्रिया समूचे भारत में उठती रही। दाभोलकर जी की मृत्यु के कुछ दिनों पूर्व महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति ने सन् 1995 से की जा रही जादू-टोना प्रतिबंध अधिनियम पारित करने की मांग के प्रति सरकार की निष्क्रियता, उपेक्षा और उदासीनता को उजागर करते हुएकृष्णपत्रिकाका प्रकाशन किया था। हत्या से उभरे लोकक्षोभ के आगे घुटने टेककर महाराष्ट्र सरकार अंततःमहाराष्ट्र नरबलि और अन्य अमानुष, अनिष्ट एवं अघोरी प्रथा तथा जादू-टोना प्रतिबंधक एवं उन्मूलन अधिनियम – 2013’ अध्यादेश को अमल में ले आई। पर उसके लिए डॉ. नरेंद्र दाभोलकर को शहीद होना पड़ा। इसमें अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति को बड़ा नुकसान हुआ, वह शायद भर सकता है? परंतु महाराष्ट्र और देश का जो नुकसान हुआ है वह कभी नहीं भरा जा सकता है।
      अंधविश्वास उन्मूलन को लेकर प्रकाशित विचार, आचार और सिद्धांत के तीनों खंड़ों के माध्यम से संपूर्ण भारत में दाभोलकर जी के विचारों को लेकर जाने का समिति का प्रामाणिक प्रयत्न है।

उपराष्ट्रपति डॉ. मो. हामिद अंसारी के भाषण का सारांश 
      इस अवसर पर उप राष्‍ट्र‍पति ने कहा कि 20 अगस्‍त, 2013 को इतिहास में काले दिवस के रूप में याद किया जाएगा, जब डॉ. नरेन्‍द्र दाभोलकर की हत्‍या की गई। वे लोगों को विभिन्‍न अंधविश्‍वासों के विरूद्ध जागरूक करने का प्रयास कर रहे थे। डॉ. दाभोलकर ने 'महाराष्‍ट्र अंधविश्‍वास विरोधी कानून' की वकालत की तथा उनकी मृत्‍यु के कुछ समय बाद ऐसा कानून पारित किया गया। उन्‍होंने कहा कि अंधविश्‍वास विरोधी कानून को राष्‍ट्रीय कानून बनाया जाना चाहिए। उनकी राय थी कि अब हमारे देश के लोगों को यह समझने की आवश्‍यकता है कि तर्कयुक्‍त सोच अविवेकी सोच से बेहतर होती है। उन्‍होंने सुझाव दिया कि इन तीन पुस्‍तकों को सभी भारतीय भाषाओं में अनुवाद किया जाना चाहिए तथा इन्‍हें अंधविश्‍वास के विरूद्ध युवा पीढ़ी को जागरूक करने के लिए विद्यालयों तथा महाविद्यालयों पढ़ाया जाना चाहिए।

      3. पुस्तक प्रकाशन करते - दाएं से डॉ. सुनिलकुमार लवटे, अविनाश पाटील, डॉ. हामिद अंसारी, नामवर सिंह, अशोक माहेश्वरी.JPG दिखाया जा रहा है 
       भारत बहुभाषी, बहुधर्मी, बहुजाति देश हैं; अर्थात् बहुता के बावजूद एक संपन्न देश है। विज्ञान और विवेक के साथ ही उसकी प्रगति हो रही है, ऐसे में डॉ. नरेंद्र दाभोलकर की हत्या होना हमारे लिए बहुत बड़ा हादसा है। हमारी विविधता, संपन्नता, बहुता पर प्रश्नचिह्न निर्माण करता है। अंधविश्वास अंधविश्वास है, उसे नकारा जाना चाहिए। उसके विरोध में किसी लड़ाई सामाजिक जागरूकता की आवश्यकता नहीं है परंतु यह आवश्यकता पड़ती है, यह स्थिति ही हमारे लिए निंदनीय है। डॉ. दाभोलकर का चिंतन और सामाजिक कार्य समाज विकास का उत्थान करता है। इसका लाभ केवल महाराष्ट्र में ही नहीं तो सारे भारतीयों के लिए होना चाहिए। अर्थात् हिंदी में इस किताब के तीन खंड़ प्रकाशित हो गए बहुत अच्छा है, अब इसे अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवादित कर इन विचारों का प्रसार किया जाने की आवश्यकता है। महाराष्ट्र के भीतर बना कानून केंद्रिय स्तर पर भी बनना चाहिए।

अंधविश्वास उन्मूलनः विचार (खंड़ - 1) – अनुवाद डॉ. चंदा गिरीश
     4. अंधविश्वास उन्मूलनः विचार - खंड - 1.jpg दिखाया जा रहा है 
      अंधविश्वास उन्मूलनः विचार (खंड़ – 1) का अनुवाद शिवाजी महाविद्यालय, बार्शी के डॉ. चंदा गिरीश ने किया है। मूल किताब के विचार पक्ष का यह अनुवाद है। जिसमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण, विज्ञान की कसौटी पर फलित ज्योतिष, वास्तुशास्त्र - अर्थ और अनर्थ, मन की बीमारियां, भूतबाधा, देवी सवांरना, सम्मोहन, भानमति, बुवाबाजी, अंधश्रद्धा निर्मूलन और हिंदू धर्म विरोध आदि विषयों पर डॉ. दाभोलकर जी ने अपना वैचारिक पक्ष रखा है। कई वास्तव घटनाओं, उदाहरणों के माध्यम से बड़ी बारिकियों से लोगों के सामने अपने विचार रखे हैं। धर्म भावानाओं का सम्मान करते हुए अंधविश्वासों को निकाल फेंकने का ईमानदार प्रयास इसमें रहा है। किसी षड़यंत्र के तहत शोषण, अन्याय, अत्याचार, पीड़ित करना हमेशा अपराध माना जाता है, इस खंड़ के भीतर इन्हीं बातों का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया है।

अंधविश्वास उन्मूलनः आचार (खंड़ - 2) – अनुवाद डॉ. प्रकाश कांबले 

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       अंधविश्वास उन्मूलनः आचार (खंड़ – 2) का अनुवाद महावीर महाविद्यालय कोल्हापुर के डॉ. प्रकाश काबले ने किया है। समाज में निहित विविध अंधविश्वास, उसके तहत लोगों को लुटे जाने की घटनाओं का प्रत्यक्ष अनुभव और उसके साथ किया गया संघर्ष इस खंड़ में है। साहबजादी की करनी, कमरअली दरवेशी की पुकार!, लंगर का चमत्कार, मीठे बाबा, गुरव बंधु का नेत्रोपचार, भूत से साक्षात्कार, दैवी प्रकोप से दो-दो हाथ, बाबा की करतूत, भगवान गणेश का दुग्धप्राशन, पुरस्कार से इंकार, मदर टेरिसा का संतपद, झांसी की रानी का पुर्नजन्म, लड़कियों की भानमति, दैववाद की होली, कुलपतियों के नाम खुली चिट्ठी, भ्रामक वास्तुशास्त्र संबंधी घोषणापत्र, शनि-शिंगणापुर, विवेक जागरण वाद संवाद, यह रास्ता अटल है, अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति और ब्राह्मणी कर्मकांड़, यह सब आता है कहां से? आदि विषयों के तहत समिति द्वारा किए संघर्ष और लड़ाइयों का ब्योरा है। प्रसाशन, पुलिस, सत्ताधीस और लोगों के कमजोर वर्तन और विचारों के साथ की लड़ाई का वास्तव दर्शन है।

अंधविश्वास उन्मूलनः सिद्धांत (खंड़ - 3) – अनुवाद डॉ. विजय शिंदे

      6. अंधविश्वास उन्मूलनः सिद्धांत - खंड - 3.jpg दिखाया जा रहा है
       अंधविश्वास उन्मूलनः सिद्धांत (खंड़ – 3) का अनुवाद देवगिरि महाविद्यालय औरंगाबाद के डॉ. विजय शिंदे ने किया है। परमेश्वर, धर्म, विश्वास-अंधविश्वास, मेरा आध्यात्मिक आकलन, स्त्रियां और अंधविश्वास निर्मूलन, महाराष्ट्र के समाजसुधारक और अंधविश्वास निर्मूलन, धर्मनिरपेक्षता, विवेकवाद आदि उप विषयों के तहत डॉ. दाभोलकर जी ने विविध विचारों के तार्किक आधार बताए हैं। बुद्धि की कसौटी पर उन्होंने प्रत्येक शब्द को कसा है। समाज के सामने विवेकवाद और विज्ञानवाद का विचार अगर लेकर जाना है तो उसका कोई तार्किक और बौद्धिक आधार हो ऐसी धारणा डॉ. दाभोलकर की रही है और इसी धारणा के तहत इन्होंने कई सवाल अपने-आप से पूछे जो सिद्धांत रूप में उतरते गए। डॉ. दाभोलकर जी के सारे जीवन और विचारों का सार यह किताब है और इस किताब का सार खंड़ तीनसिद्धांतहै। परिशिष्ट में डॉ. दाभोलकर का परिचय, उनके सामाजिक कार्य एवं संघर्ष यात्राओं का ब्योरा है।
      तीन अनुवादको में सुसंगति हो इसलिए संपादक के नाते डॉ. सुनिलकुमार लवटे जी ने निगरानी रखी और अपनी संपादकीय कुशलताओं को अंजाम तक पहुंचाया है। राजकमल प्रकाशन के सार्थक प्रकाशन के तहत कथेतर साहित्य की यह अनुठी देन है जो सबका मार्गदर्शक बन सकती है। यह तीन किताब रूपी खंड़ किसी महाकाव्य और ग्रंथ से कम नहीं है। इंसान के बंद दिमाग के कपाटों को खोलने का काम करते हैं। अंधविश्वास के तिमिर से विवेक और विज्ञान के तेज की ओर ले जाने वाली यह तीनों पुस्तकें परंपरा का तिमिर भेद तो है ही, विज्ञान का लक्ष्य भी है।