रविवार, 7 दिसंबर 2014

घने-काले ‘अंधेरे में’ नितांत अकेला

      
      'लेखनी' के नए अक्तूबर-नवंबर के अंक में नया आलेख प्रकाशित हुआ है। मूल आलेख पढना चाहते हैं तो उसकी लिंक है - घने-काले ‘अंधेरे में’ नितांत अकेलाः विजय शिंदे वैसे मूल आलेख जैसे हैं वैसे निचे जोडा गया है।

  मनुष्य इस दुनिया में बच्चे के रूप में मां के पेट से जब जन्म लेता है तब वह दुनिया से परिचित नहीं होता है। अपनी किलकिली आंखों से वह दुनिया का परीक्षण करना शुरू कर देता है। एक-एक चीज उसके आंखों से होकर दिमाग में अंकित होना शुरू करती है। कहा जाता है कि दुनिया बड़ी जालिम है।अर्थात् इसकी जालिमता के भी कुछ दृश्य, घटनाएं धीरे-धीरे वह पहचानने लगता है। देर लगती है, परंतु दुनियादारी से जुड़े हर आयाम से वह परिचित होने लगता है। जैसे-जैसे उसकी उम्र बढ़ने लगती है वैसे-वैसे उसका और अधिक दुनिया से परिचय होता है। अच्छी-बुरी सारी स्थितियों से वाकिफ भी होता है। दुनिया की गुत्थियां, पेचिदगियां और अनसुलझे प्रश्नों के साथ उसकी एक लंबी लडाई शुरू होती है और वह एक भयानक अंधेरे मेंप्रवेश करने लगता है। जो बच्चा बचपन में भय नामक चीज से बिल्कुल परिचित नहीं होता, वहीं बडा होने पर छोटी-छोटी चीजों से भयभीत होने लगता है। सामाजिक परिस्थितियां उसके मन पर जबरदस्त दबाव डालती है कि उसका मन आतंकित हो उठता है। लगता है, इंसानों से भरी दुनिया इंसानों के बिना जी रही है। एक तरफ भरनाभी है और भरकर खालीपनभी है। विपरीत परिस्थितियों के जाल में फंसा आदमी विभिन्न अंतरों, मत-मतांतरों, दीवारों, मुश्किलों, विवादों, वर्ण-व्यवस्थाओं, जाति-व्यवस्थाओं, धर्म-संप्रदायों, आर्थिक विभिन्नताओं, शक्तियों... में फंसकर दिग्भ्रमित होता है। आकाश की ओर हाथ-आंखें उठाए अपने-आपको स्थिर बनाने की कोशिश करता है। पैर डगमगाने लगते हैं, सिर चकराने लगता है, शरीर रोमांचित होता है, दिल की धड़कने बढ़ने लगती है और मन भयभीत होकर कंपकंपाने लगता है। वह एक ऐसी मानसिक अवस्था में पहुंचता है कि उसे दुनिया से ही भय लगने लगता है। अपने आस-पास से भय लगने लगता है। एक ऐसे घुप्प अंधेरे मेंउसकी तकलीफदेय छटपटाहट शुरू होती है, जो अन्य देख नहीं सकते हैं, केवल और केवल वह अकेला देख सकता है। फिर उस अकेलेपन से उसे और अधिक भय निर्माण होता है।
देश-दुनिया के युवक आज जिन परिस्थितियों से गुजर रहे हैं, वह परिस्थितियां उन पर बहुत अधिक दबाव डाल रही है। भूतकाल से ताकत नहीं, वर्तमान संघर्षभरा है, दबाव डाल रहा है और भविष्य का कोई ठिकाना नहीं है। असंदिग्धता से भरा पूरा माहौल युवकों के सामने प्रश्न बनकर खडा है। जो निश्चित मकाम तक पहुंचा है, या अपनी जरूरतों को पाने में सक्षम है, वह इस भय से शायद ही परिचित हो। परंतु दांवे के साथ कहा जा सकता है कि कभी वह भी दबावों को झेलता हुआ इन स्थितियों से गुजरा होगा। कम से कम इन दबावों ने उसे एक क्षण के लिए ही सही भयभीत किया होगा। यह एक ऐसी मानसिक अवस्था है जिससे युवकों को गुजरना ही पड़ता है। ऐसी स्थितियों में जो अपना बैलंस बनाने में सफल होगा, वह इस भय से मुक्ति पाने में सफल होता है। इसका कालखंड़ दो बरस, पांच बरस, या दस बरस का है... बताया नहीं जा सकता, पर होता जरूर है। यह एक ऐसा अंधेरा रास्ता है जिससे हर एक को गुजरना ही होता है।
जीवन में ऐसे कई घटना-प्रसंग आते हैं जो हमारी यादों पर छाप छोड़ते हैं- कुछ अच्छे, कुछ बुरे, कुछ भय निर्माण करने वाले। इंसान है, तो ऐसी स्थितियों से गुजरना तो है ही। इंसान है, तो बीमार भी पड़ना है। ...पांचवी कक्षा में था तब की बात है। बुखार से शरीर जले जा रहा था। एक सप्ताह हो गया, स्कूल की तरफ कदम उठे नहीं थे। घर में पड़े-पड़े खपरैल छत देख-देखकर मन उकता चुका था। थोड़ी-सी आंख लगी कि भयानक सपनें आतंक पैदा कर देते थे। तो बुखार बुरे सपनों को आमंत्रित करता है और वह भी इतने भयानक कि पूछे नहीं। बुखार, ऊपर से भयानक सपनें। गर्मी के दिन। कुलमिलाकर पसीना-पसीना और बिछावन भय से गीला। भाई स्कूल में। मां गाय-भैस को चराने ले जाती और पिताजी पास में ही चल रहे नए तालाब के लिए बांध पर मजदूरी करने निकल पड़ते। अकेलापन आतंक पैदा करते रहता। गर्मी और अंधेरे से छुटकारा पाने के लिए घास की छत वाले अगले हिस्से में बिछावन डाले रखा था। सुबह दस का समय था। हमारे घर के सामने से बांध पर काम करने वाले मजदूर जाया करते थे। कुछ बाहरी गांव से भी बुलाए गए थें और उनके पास मिट्टी और पत्थर ढोने के लिए गधे भी थें। जब ठीक था तब और जब बीमार था तब भी रोज आंखों के सामने से इनके आने-जाने का दृश्य गुजर जाता था। आंखें थोड़ी बंद, थोड़ी खुली। झपकी आ रही है और बुखार भी तेज। बढ़ते बुखार के साथ सामने से गधे अपने मालिक के साथ गुजर रहे हैं। एकदम अचानक एक गधा आक्रामक होकरहुं... हां, हुं...हांकरते चिल्लाने लगता है। कुदने लगता है। दुलत्थियां मारने लगता है और उसके पास से जाने वाले मेरे चाचा (अप्पा) को एक झटके के साथ अपने मुंह में पकड़कर गपागप चबाने लगता है। मैं भयभीत होकर बिस्तर से उठकर जोर-जोर से चिल्लाते हुए आंगन से होकर गधे की ओर भागने लगता हूं। मुझे दौड़ते हुए, चिल्लाते हुए देखकर मां भी मेरे पीछे दौड़ती है। मुझे पकड़कर गोद में उठाती है। शांत करने की कोशिश करती है। झपकी लगने से पहले गधे मेरे आंखों के सामने से गुजर रहे थें और इस समय आंख लगते ही वह भयानक सपने में तबदील होकर मेरे चाचा को चबा रहे थे, जिससे भयभीत होकर मैं चिल्लाते जा रहा था। खैर आज भी वह चाचा जिंदा है। हमसे अच्छी स्थितियां थी कारण फौज में नौकरी कर रहे थे। ठीक-ठाक चलता था। समय के चलते घमंड़, अहं और गर्व का गधा न केवल उन्हें उनके सारे परिवार को गपागप खाए जा रहा है।
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बी.. हो गया और एम.. हिंदी के लिए शिवाजी विश्वविद्यालय कोल्हापुर में ऍडमिशन लिया। घर की स्थितियां बदली थी। बचपन में जो अर्थाभाव देखा था उसकी मार थोड़ी कम हो गई थी। कारण इस बीच बड़ा भाई फौज में भर्ती हो गया था। मेरी पढ़ाई उसी के बलबूते पर चल रही थी। वैसे खर्चा ज्यादा तो था नहीं परंतु सामान्य आर्थिक स्थितियां दबाव बना लेती ही है। जैसे-जैसे आगे पढ़ता जा रहा था वैसे-वैसे मन में अपराध भाव का भय भी बढ़ते जा रहा था। भविष्य की असुरक्षितता इस भय को और बढ़ावा दे रही थी। सामाजिक अशांतता, बेरोजगारी, शिक्षित युवकों का संघर्ष इस भय को सिंचते जा रहा था। होस्टल में एक समान उम्र के सारे दोस्त, सबकी स्थितियां वहीं। अनावश्यक तौर पर अनावश्यक दबाव। नवीन माहौल और गांव-घर से दूरी। मन में अनेक प्रकार के भय के साथ अशांति का भाव रातों की नींद हराम करते जा रहा था। खैर जैसे-तैसे नए परिवेश से गाड़ी आगे बढ़ रही थी पर मन अशांति से भरा था। होस्टल क्रमांक तीन रूम नंबर तेरह। चपरासी ने रूम की चाबियां हाथों में सौंपते हुए व्यंग्य और मजाकियां तौर पर कहा कि "क्या कमरा मिला है? तुम्हारी पढ़ाई के तीन-तेरह न हो जाए।" यह वाक्य बार-बार कानों में गुंजते हुए भय निर्माण कर रहा था।
कोल्हापुर जाते वक्त भाई ने टायमेक्स कि एक नई घड़ी दे दी थी। वैसी ही घड़ी उसने अपने लिए भी खरीदी थी। बड़े प्यार से उसे पहना करता था, परंतु मन में अपराध भाव का भय बढ़ते जा रहा था कि वह अपने पढ़ाई पर पैसे लगवा रहा है, भविष्य में इसका कोई लाभ होगा भी या नहीं? कारण मेरे जैसे अनेक युवक यहां पढ़ रहे हैं, इन सबको नौकरियां लग सकती है? इनके साथ मैं स्पर्धा कर पाऊंगा? अगर इसमें असफल रहे तो कौनसेअंधेरे मेंजाकर हमारी गाड़ी रूक जाएगी? मेस का खाना, किताबें, कपड़े, बिस्तर, घड़ी... सब कुछ उसका। उधारी पर उधारी चढ़ती जा रही थी और मन चितिंत भयभीत होते जा राह था। दिन तो जैसे-तैसे कट जाता था। दोस्त क्लास और किताबें। पर कहां से क्या शुरू करें? समझ में नहीं आ रहा था। लग रहा था जैसे भी हो छोटी-सी नौकरी लग जाए तो जिंदगीका बेड़ा पार होगा। लेकिनछोटी-सीभी कहीं नजर नहीं आ रही थी। अपने रूम पार्टनर के साथ एक प्रयास फौज में भर्ती होने के लिएभर्तीपूर्व प्रशिक्षणलेने का भी किया। वहां भी फेल हो गए। अर्थाभाव और दबावों के चलते शरीर इतना कमजोर हुआ था कि वह प्राथमिक मापदंडों में भी नहीं बैठ रहा था। न छाती उनके अनुकूल थी और न वजन। मायुसी के साथ वापसी। वहीं होस्टल का कमरातीन-तेरहऔर चपरासी के वाक्यों की गुंज। घड़ी सिरहाने टेबल पर रखकर लोहे की खाट पर सो जाता था। पार्टनर और मेरे बीच में टेबल। उसकी और मेरी चिंताएं एक समान। लाईट बंद। घुप्प काला अंधेरा। चारों तरफ शांति पर मन अशांत। जैसे जैसे रात चढ़ने लगती वैसे-वैसे भयानक शांति अंदर और बाहर भरने लगती। जिसको दिन में नहीं सुन सकते वह रात में बड़े आराम के साथ सुना जा सकता है। दिल की धड़कनें, सांसों की आवाजें, और... और सिरहाने रखी टायमेक्स घड़ी की टिक-टिक। भय, डर और अनजानी चिंताओं की हथौड़ियों की चोटों से दिल की धड़कने बढ़ती थी और बिस्तर पर बेचैन होकर उठ बैठता था। घने-कालेअंधेरें मेंनितांत अकेला, केवल घड़ी की टिक-टिक के साथ डरकर, सहमकर, भयभीत होकर। यह कौन-सा भय है? यह कौनसा अपराध भाव है? मेरा मन मुझे ही सवाल करते जाता है और उससे भयभीत होकर सिर चकराने लगता है। सिद्धांतवादी मन परिस्थितियों के तले दबने की तड़प से छटपटाते जाता है। मुक्तिबोध कीअंधेर मेंकविता की भांति
"ओ मेरे आदर्शवादी मन,
ओ मेरे सिद्धांतवादी मन,
अब तक क्या किया?
जीवन क्या जिया!!
उदरंभरि बन अनात्म बन गए,
भूतों की शादी में क़नात-से तन गए,
किसी व्यभिचारी के बन गए बिस्तर,
दुःखों के दाग़ों को तमग़ों-सा पहना,
अपने ही ख़यालों में दिन-रात रहना,
असंग बुद्धि व अकेले में सहना,
ज़िंदगी निष्क्रिय बन गई तलघर,
अब तक क्या किया,
जीवन क्या जिया!!
बताओ तो किस-किसके लिए तुम दौड़ गए,
करुणा के दृश्यों से हाय! मुंह मोड़ गए,
बन गए पत्थर,
बहुत-बहुत ज़्यादा लिया,
दिया बहुत-बहुत कम,
मर गया देश, अरे जीवित रह गए तुम!!
लो-हित-पिता को घर से निकाल दिया,
जन-मन-करुणा-सी मां को हकाल दिया,
स्वार्थों के टेरियार कुत्तों को पाल लिया,
भावना के कर्तव्य--त्याग दिए,
हृदय के मंतव्य--मार डाले!
बुद्धि का भाल ही फोड़ दिया,
तर्कों के हाथ उखाड़ दिए,
जम गए, जाम हुए, फंस गए,
अपने ही कीचड़ में धंस गए!!
विवेक बघार डाला स्वार्थों के तेल में
आदर्श खा गए!
अब तक क्या किया,
जीवन क्या जिया,
ज़्यादा लिया और दिया बहुत-बहुत कम
मर गया देश, अरे जीवित रह गए तुम..."

शुक्रवार, 21 नवंबर 2014

विवेकी राय का समर शेष है


विवेकी राय का समर शेष है
 विवेकी राय

        विवेकी राय की पहली प्रकाशित पुस्तक ‘अर्गला’ (1951) कविता संग्रह है। परिस्थितिवश कविता के बीच से उपजता गद्य लेखक आगे बढ़ते हुए हिंदी साहित्य की अमूल्य सेवा करता है। पत्रकार और अध्यापक रहे विवेकी राय का अनुभव जगत् अभिव्यक्ति पाकर हिंदी साहित्य में साकार हो उठा है। भोजपुरी के प्रति विशेष प्रेम होने के कारण उस भाषा में भी उन्होंने कई किताबों का सृजन किया है। गांव उनका आत्मीय रहा है। अतः उन्होंने गांव की गलियों में घूमते हुए विषयों को उठाकर एक से बढ़कर एक साहित्यिक कृतियों की निर्मिति की है आगे पढ़ें: रचनाकार: विजय शिंदे का आलेख - विवेकी राय का समर शेष है

बुधवार, 8 अक्तूबर 2014

किसनगढ़ के शोषण परंपरा की शिनाख्त





                   सृजनकर्ता सृजन क्यों करता है? साहित्य का उद्देश्य क्या है? यश, कीर्ति, मनोरंजन, रुपए कमाना, समाजहित करना या और कोई? अब साहित्य का क्षेत्र सीमित नहीं रहा है, उसमें परिवर्तन हो गए हैं। अनेक विधाएं और विधाओं के अंतर्गत कई प्रकारों में लेखन हो रहा है। उपन्यास विधा में चर्चित बना प्रकार आंचलिक उपन्यास। पाठक, समीक्षक के साथ हर एक को आह्वान करता आंचलिक उपन्यास। इसे बांचना, गुत्थियां सुलझाना, उद्देश्य को पकड़ना, लेखकीय पीड़ा की व्याख्या करना, भाषा के सौंदर्य का विश्लेषण करना, पात्रों के आत्मा की गुंज सुनना... आदि-आदि ‘चैलेंज’ बनकर अंतरबाह्य झकझोर देता है। वर्तमान हिंदी साहित्यकारों में, लेखन करने वाले आंचलिक लेखकों में अग्रणी लेखक के रूप में संजीव को पहचाना जाता है। इनका प्रत्येक उपन्यास आंचलिकता के अनछुए विषयों को लेकर उठता है और उस संसार की विड़ंबनाएं सामने रखता है। यह विड़ंबना उस गांव, आंचल, प्रदेश या किसी विशिष्ट क्षेत्र की होती है परंतु लेखकीय (आंचलिक लेखकों की) विशेषता यह होती है कि वह सीमित होकर व्यापक दर्शन कराती है। कृष्ण ने कुरुक्षेत्र पर खड़े होकर अर्जुन को विराट दर्शन कराए थे। आज प्रत्येक आंचलिक लेखक जीवन की दुर्गम युद्धभूमि पर खड़ा होकर मनुष्य के कई रूपों के दर्शन कराकर सोचने के लिए मजबूर कर रहा है। संजीव भी ‘किसनगढ़ के अहेरी’ उपन्यास से ‘देखिए, सोचिए और चेतिए का आह्वान’ करते हैं। आगे पढ़ें: रचनाकार: पुस्तक समीक्षा – किसनगढ़ के अहेरी

शनिवार, 16 अगस्त 2014

अपने घर से लौटते समय

मंथन
अपने घर से लौटते समय

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(प्रस्तुत आलेख लेखनी ई-पत्रिका के मंथनःडॉ. विजय शिंदे | लेखनी/ lekhni अगस्त ...2014 के अंक में प्रकाशित हुआ है। पूरा आलेख यहां पर दे रहा हूं।)

          वर्तमान सामाजिक ढांचा जिस गति के साथ परिवर्तित हो रहा है उससे अचंभा होता है। यहां ‘परिवर्तित’ शब्द का जानबूझकर इस्तेमाल किया है। दूसरे शब्दों में अगर इसे कहा जाए तो बिखर रहा है, टूट रहा है कहा जा सकता है; जो सामाजिक ढांचे की गिरावट को दिखाता है। आधुनिकता और प्रगति के चलते पुराने ढांचे में जबर्दस्त परिवर्तन हो रहा है। नवीन जरूरतें, नवीन मांगें और आवश्यकताओं के चलते पुराने का बकर्रार रहना बिल्कुल संभव नहीं है। आज हम जिस मकाम पर खड़े हैं वहां से वापस मूड़कर एक नजर डाले, थोड़ा-सा लौटकर हम देखें कि कुछ दिन पहले, कुछ साल पहले, कुछ सदियों पहले हम कहां थें? तो हम चकित हो जाएंगे। कारण हमने इंसान होने के नाते जिन उंचाइयों को छुआ है उससे अचंभित होना लाजमी है। लेकिन यह देखकर भी दुःखी होते हैं कि इंसान होने के नाते पारिवारिक ढांचा, रिश्ते-नातों के नाजुक जुड़ाव को यह आधुनिकता का जामा कमजोर करते गया है। मूल कारण आधुनिकता और इसके साथ अन्य अनेक छोटे-बड़े उपकारणों से मनुष्य जीवन के भीतर अनेक परिवर्तन हो चुके हैं, जिससे व्यक्ति के रिश्तों के धागों में कमजोरी पैदा हो गई है। एक रूखापन-सा आ गया है। भौतिक. भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक… अंतर इतना बढ़ गया है कि इंसान को पता ही नहीं चला कि हम इतने दूर कब और कैसे चले आए। इस पीड़ा से बाहर निकलने के लिए और दुबारा इन रिश्तों को जोड़ने के लिए प्रयास करना जरूरी है। आधुनिकता की अच्छाइयों के स्वीकार के साथ नुकसानदेह बातों को छोड़कर पुराने रिश्तों के धागों को मजबूत करना भी जरूरी है। जंगल के भीतर कोई व्यक्ति अपना रास्ता भटक जाए तो दुबारा रास्ता पाने के लिए उसे उस जगह पर लौटना जरूरी होता है जहां से उसने वापसी के लिए शुरुआत की थी। वापसी के ‘की पॉईंट’ को पाया कि वह संभव है बाहर आने का मार्ग भी पाए। विकास के चलते बढ़ता शहरीकरण और टूटते गांव, बिखरते रिश्ते, किसी जंगल में भटके यात्री से कम नहीं है। गांवों में हाथ-पैर मारने पर भी आम आदमी अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति न कर पाने के यथार्थ से जब परिचीत होता है तब मजबूरन गांव को छोड़ देता है और शहर की ओर भागना शुरू कर देता है। उसके मन में भागम्-भाग से एक कचोट निर्माण होती है कि ‘मैं मेरी आत्मा को मारकर निकल रहा हूं।’ क्या कभी उसकी आत्मा जीवित हो सकती है? उसका वापस लौटना संभव है? या युं कहे कि शहर में जो मौके हैं वे गांव के लोगों को गांव में ही मिल सकते हैं। या गांव पूरी तरह युवकों के बिना बूढ़ों के साथ जीने के लिए शापित रहेंगे और बूढ़ों के चल बसने के बाद बिल्कुल विरान हो जाएंगे?
अचानक मन में यह विचार क्यों निर्माण हो गए भाई? …मन के अंदर से एक आवाज उठती है कि – अचानक कैसे? बार-बार तो इन परिस्थितियों से तुम गुजरते हो। कभी ध्यान नहीं दिया, कभी ध्यान दिया तो लताड़कर उसे दूर भगा दिया। शहर जाए तो गांव, घर, घर के लोग, वहां का परिवेश, गाय, भैस, बकरियां, चिड़ियां, वहां की ताजी हवा, हरियाली, पेड़-पौधें, घास, पानी के झरने, गर्मी, कभी सूखा, धूप… क्या-क्या नहीं छोड चले। गांव का इंसान शहर, शहर का बड़े शहर और बड़े शहरों का विदेशों में जा रहा है। नवीन तंत्रज्ञान के चलते यह कड़ियां टूट चुकी हैं, अतः प्रत्येक पढ़ा-लिखा बड़े शहरों और विदेशों में जाने की मंशा रखता है। लेकिन जब भी कभी वह छुट्टियों (दो-चार दिन की हॉटेलिंग या पिकनिक!) के लिए गांव लौटने लगता है तब उसकी पुरानी यादें ताजा होने लगती हैं। त्रिलोचन की कविता ‘घर वापसी’ में इसका मार्मिक वर्णन है –

          “घंटा गुजर गया, तब गाड़ी आगे सरकी
           आने लगे बाग, हरियाले खेत, निराले;
           अपनी भूमि दिखाई दी पहचानी, घर की
           याद उभर आई मन में; तन रहा संभाले।
                  XXX
           क्या-क्या देखूं, सबसे अपना कब का नाता
           लगा हुआ है। रोम पुलकते हैं; प्राणों से
           एकप्राण हो गया हूं, ऐसा क्षण आता
           है तो छूता है तन-मन कोमल बाणों से।”

यह सफर बस से हो, ट्रेन से हो, अपनी गाड़ी से हो, हवाई जहाज से हो या और किसी तरीके से। लौटते वक्त सफर के दौरान पुरानी यादों को ताजा करने के लिए समय जरूर होता है। और मन के भीतर उन यादों का, रिश्तों का हिसाब-किताब शुरू होता है। जिन सुख-सुविधाओं, भौतिकताओं, पैसों, मान-सम्मानों को पाया उससे थोड़ा-बहुत सकुन तो मिलता है परंतु जिन चीजों को खोया उन बाणों से तन-मन लहूलुहान भी होता है। अपने ही आंखों के आयने में झांकने के बाद अपराध भाव भी महसूस होता है। कितने स्वार्थी हो गए हैं हम कि जहां अपनी आत्मा को मरवाकर उड़ने की कोशिश कर रहे हैं।
चार दिनों की छुट्टी (हॉटेलिंग या पिकनिक!) खत्म होने के बाद मजबूरी होती है कि अपने नौकरी की जगह वापस भी लौटे। दुःख और पीड़ा होती है। पता नहीं फिर वापस कब लौटे। जब लौटे तब आज जो है वह रहेगा या नहीं, भरौसा नहीं! गांव में तो बूढ़े विचरन करने लगे हैं, दो-चार महीने में एक-एक विदाई लेते जा रहा है। अगली बार आए तो कितने उड़ जाए पता नहीं। …मन में भय पैदा होता है कि गांव भी तो बूढ़ा हो चुका है कहीं यह भी उड़ नहीं जाएगा ना? हर समय रिश्तों के कमजोर होने का भय सिर पर मंड़राता है। आवाहन है कि पुराने को मजबूत कर नए को जोड़ना। क्या कभी संभव है कि पुराने पर वापस लौटे और नए को बनाए रखें? …आस-पास घुप्प फैले अंधेरे से कई भूतों की टोलियां उठकर नाचने लगती हैं और कहती हैं कि ‘भाई तुम्हारी यह कल्पना भारत और पाकिस्तान को दुबारा एक करने जैसा है।’ …मैं दहल उठता हूं कि क्या भविष्य में गांव और शहर के रिश्ते भारत-पाकिस्तान जैसे हो जाएंगे?
बेटे का माता-पिता के घर लौटना जरूरी है। माता-पिता का बेटे के घर जाना जरूरी है। बेटी के घर माता-पिता का जाना जरूरी है और बेटी भी माता-पिता के घर वापस लौटकर देखे। हर आदमी लौटकर रिश्ते को मजबूत करें। अर्थात् रिश्ते को बनाए रखना, मजबूत करना आवश्यक है। गांवों और शहरों में दूसरे अर्थों में भारत और इंडिया में इन रिश्तों की मजबूती तो आवश्यक बनती है। चंद्रकांत देवताले ‘बेटी के घर से लौटना’ में अपने आत्मा की पीड़ा को व्यक्त करते हैं –

         “बहुत जरूरी है पहुंचना
          सामान बांधते बमुश्किल कहते पिता
          बेटी जिद करती
          एक दिन और रुक जाओ न पापा
          एक दिन
                      XXX
          सोचता पिता सर्दी और नम हवा से बचते
          दुनिया में सबसे कठिन है शायद
          बेटी के घर से लौटना।”

व्यापक अर्थों में यह पीड़ा जगह-जगह, स्थान-स्थान महसूस की जाती है। पात्र बदलेंगे पर पीड़ा तो वहीं है। वापस लौटने की अथवा रुकने की मांग तो है ही।

शुक्रवार, 8 अगस्त 2014

साहब, दीदी और गुलाम



         'साहब, दीदी और गुलाम' मराठी के प्रसिद्ध लेखक दया पवार की मराठी कहानी है। उसका हिंदी अनुवाद 'रचनाकार'  ई-पत्रिका में प्रकाशित हुआ है। इनका पूरा नाम दगडू मारुती पवार है, साहित्यिक जगत् में दया पवार के नाम से इनकी पहचान बनी हैं। इनका जन्म अहमदनगर जिले के धामणगांव में इ. स. 1935 में हुआ। दलित जाति के भीतर जन्म पाने के कारण बचपन से दलितों के साथ होने वाले अन्याय-अत्याचार से भलिभांति वाकिफ थे। इनके ‘बलुतं’ नामक पहली आत्मकथात्मक साहित्य कृति के कारण मराठी साहित्य एवं दलित साहित्य में नया मोड आ गया। लेखक ने प्रस्तुत कृति में अपने आपको केंद्र में रखा और सारे दलितों के जीवन को वाणी देने का प्रयास किया है। इनकी इस कृति से प्रेरणा पाकर मराठी साहित्य में दलित लेखकों की एक बडी फौज निर्माण हो गई। ‘बलुतं’ आत्मकथन के बाद कहानीसंग्रह - ‘जागल्या’, ‘पासंग’, कवितासंग्रह – ‘कोंडवाडा’ ‘धम्मपद’, अन्य - ‘पाणी कुठंवर आलं गं बाई’, ‘विटाळ’ आदि भी इनकी रचनाएं काफी चर्चित रही है। महानगरीय जीवन के संघर्ष, पैसा और रिश्तों पर प्रकाश डालती कहानी पाठकों को पसंद आएगी। यहां आपके लिए 'रचनाकर' की लिंक दे रहा हूं, आगे पढे - मराठी कहानी – साहब, दीदी और ग़ुलाम

सोमवार, 16 जून 2014

वीरेंद्र जैन का 'शब्द-बध' विचार पुनर्विचार

                प्रिय दोस्तों बहुत दिनों बाद आपसे मिल रहा हूं और कोई रचना आपके पास भेज रहा हूं। आपकी रचनाएं बिच-बिच में देखी भी कुछ पढी भी। पर संदेशों और प्रतिक्रिया के साथ मुलाकात नहीं कर पाया क्षमा चाहता हूं। इन दिनों में गायब होकर डॉ. नरेंद्र दाभोलकर जी की मराठी किताब 'तिमिरातुनी तेजाकडे' का हिंदी अनुवाद का कार्य पूरा किया है। यह किताब जल्दी ही 'राजकमल' प्रकाशन, दिल्ली से आ जाएगी। इसे पूरा करने में मेरा काफी समय गया और आपके अभाव को महसूस करता रहा। जैसे ही काम पूरा किया कॉलेज को छुट्टियां लगी और इंटरनेटीय दुनिया बंद हो गई या कहे कि गति बहुत कम हो गई। खैर गांव में भी लिखना और पढना जारी रहा। उसीका नतीजा है आपको 'शब्द-बध' उपन्यास की समीक्षा भेज रहा हूं।
              वीरेंद्र जैन ने लेखकीय और प्रकाशन जगत् की वास्तविकताओं इस किताब में सामने रखा है। 'रचनाकार' ई-पत्रिका में प्रस्तुत समीक्षा प्रकाशित हो गई है उसकी लिंक आपके लिए दे रहा हूं  - पुस्तक समीक्षा - शब्द-बध - डॉ. विजय शिंदे - वीरेंद्र जैन का 'शब्द-बध' विचार-पुनर्विचार
प्रस्तुत आलेख वेब वार्ता से प्रकाशित हुआ है उसकी लिंक आगे दे रहा हूं - पुस्तक समीक्षा: शब्द-बध - WebVarta | ncr news ...

सोमवार, 10 फ़रवरी 2014

'लेखनी' में 'सच कहूं' कविता

     दोस्तों बहुत दिनों से आपसे मुलाखात नहीं और आपके कई महत्त्वपूर्ण लेखों, कविताओं, कहानियों एवं विचारों को मिस कर रहा हूं। पर आपसे आशा है कि आप मुझे दुबारा बात एवं संवाद करने के लिए समय देंगे। फिलहाल आपको इतना कह सकता हूं कि एक अहं काम को अंजाम तक पहुंचानी की कोशिश कर रहा हूं, अतः समय की कमी के चलते आपसे थोडा कटा हूं।
      इसी दौरान 'सच कहूं' नामक एक कविता 'लेखनी' ई-पत्रिका के कविता आज और अब में  में प्रकाशित हो गई है उसकी लिंक FEBURARY-2014-HINDI ( लेखनी: LEKHNI )आपके लिए दे रहा हूं। साथ ही यह कविता ब्लॉग पर भी जोडी है।



सच कहूं
  

सच कहूं तुम्हारी बातों से
‘डर’ लगता है।
तुम उम्र बार-बार
पूछती हो,
गरीब, संवेदनशील, भावुक मन,
बूढा होकर बैठने लगता है।


घबडा कर, अपने आप से
कहीं मैं,
मेरी उमर,
सावला चेहरा,
गंभीर विचार,
मेरा आस-पास
और मेरे संस्कार
तुम्हें पसंद नहीं
ऐसा लगता है।

चाहता हूं आजादी दूं
दुबारा सोचने की।
कहीं ऐसा न हो कि
समय चला जाने के बाद
आफत न आए,
तुम पर पछताने की।

कृपा करो मेरा डर
सच या झूठ में
तब्दील करने की।