बुधवार, 25 दिसंबर 2013

तीन कविताएं

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  •             प्यारे दोस्तों 'रचनाकार' ई-पत्रिका में 'मजबूर हूं', मृत्यु तय हई है' और 'नशा' यह तीन कविताएं प्रकाशित हो गई है। तीनों कविताएं अलग विषय और अलग पृष्ठभूमि को बयां करती है। पखवाडे की कविता के अंतर्गत विजय वर्मा, जतिन दवे, मोतीलाल और अनंत आलोक के बाद क्रम से मेरी तीनों कविताएं है। आप तक उसकी लिंक पहुंचा रहा हूं। लिंक है - पखवाड़े की कविता

शुक्रवार, 6 दिसंबर 2013

मेरी किताबें


सवासीन

 1.. 'सवासीन' छोटी साईज मुखपृष्ठ.jpg दिखा रहा है 
 सवासीन (कहानी संग्रह) – लेखक डॉ. विजय शिंदे,
 प्रियदर्शी प्रकाशन, कोल्हापुर, प्रथम – 2004, मूल्य – 48,
 पृष्ठ – 94, ISBN: 81-87056-45-II

‘सवासीन’(भारतीय साहित्य संग्रह की लिंक - सवासीन) डॉ. विजय शिंदे द्वारा मराठी भाषा में लिखित पहला कहानी संग्रह है, जिसमें दस कहानियों का समावेश हैं। प्रस्तुत कहानी संग्रह को ‘महाराष्ट्र राज्य साहित्य और संस्कृति मंडल’ का प्रकाशनार्थ अनुदान भी प्राप्त हुआ है।
      गांव, गांव के भीतर के विविध पात्र और घटनाओं को केंद्र में रख कर बडे रोचक और मार्मिक ढंग से इस कहानी संग्रह की कहानियां सजी है। ग्रामीण भाषा की सुंदर गंध विविध पात्रों के माध्यम से कहानियों में उतरती है। ‘सवासीन’ कहानी में एक सुहागन का ‘नाग’ जैसे विषैले सांप के काटने से मरना आम ग्रामीण वास्तविकता को प्रकट करता है। आज भी गांवों के भीतर सांपों के काटने से कई लोग मरते हैं। अस्पताल की अपेक्षा मदिरों और झाड़-फूंक पर विश्वास करने वाले लोग बेवजह अपनी जान से हाथ धो बैठते हैं। मन-मस्तिष्क और दिल में एक मर्मांतक पीडा निर्माण करने वाली ‘सवासीन’ कहानी शीर्ष होने को सही ठहराती है। ‘तयब्याचं हाटेल’, ‘सुतारपाटील’, और ‘प्वार’ जैसी कहानियों में विशिष्ट पात्र को केंद्र में रख कर बुना गया है। पात्रों की सूक्ष्मताएं, उनकी सही-गलत आदतों का चित्रण उनमें वर्णित है। ‘फाकड्या’, ‘आकणीचं पाय’ जैसी कहानियों में आदतों से मजबूर व्यक्ति नैतिकता को छोड़ कर गलत कदम उठाता नजर आता है। शराब की लत से पीडित व्यक्ति खुद तो बरबाद होता ही है पर अपने परिवार को भी ले डूबता है, इसका सार्थक रेखांकन ‘फाकड्या’ में है। ‘आकणीचं पाय’ कहानी में पतित हो चुकी आकणी अपने मां-बाप, परिवार और पति की इज्जत दांव पर लगा कर केवल शरीर सुख पाने के लिए झूठ का सहारा लेकर बचने की कोशिश करते नजर आती है। ड्रायव्हरों की जिंदगी संघर्षपूर्ण है और हमेशा उसके लिए खतरा बना रहता है। देश में विभिन्न जनजातियां अपराधिक कृत करती है केवल पेठ की भूख मिटाने के लिए और परिवार का पालन-पोषण करने के लिए। ‘धडपड’ कहानी में ऐसे ही अपराधिक जनजाति के हाथों अपनी जान गवां बैठे ड्रायव्हर का वर्णन है। ड्रायव्हर और अपराध को अंजाम देते खून की होली खेलते लुटेरों का वर्णन ‘धडपड’ में है। अपराधिक जनजातियां चोरी-डकैती करती है और इसे अंजाम देते वक्त इंसान को जान से मारने का पाप केवल जीने के लिए की कोशिश का नतिजा होता है। अर्थात् जीने का जबरदस्त संघर्ष दोनों तरफ से ‘धडपड’ में है।  मोबाईल और फोन से गांवों की दुनिया बदल चुकी है और इस आधुनिक उपकरण से मानवीयता खत्म होने का संकेत ‘क्रिंग-क्रिंग’ कहानी में है। खाना प्राप्ति का एक जरिया शिकार है। ‘माग’ कहानी में कुत्तों की मदत से खरगोश का शिकार करना, उसकी रोचकता और चित्र सौंदर्य बारिकी से उकेरा गया है। ‘जेव्हा पाईप फुटतो’ में दुर्घटनावश हो गई गलती से पीडित बच्चे की मानसिकता का वर्णन है।
      महाराष्ट्र और महाराष्ट्रीयन गांवों के विविध घटनाओं में से कुछ घटनाओं को पाठकों तक पहुंचाने का लेखक का प्रयास रहा है। भाषाई सौंदर्य, घटनाओं को पिरोने की अद्भुत कला, कहानियों को चरम तक पहुंचाने की क्षमता लेखकीय कुशलता मानी जाएगी।

 ययाति

 2.. 'ययाति' छोटी साईज मुखपृष्ठ.jpg दिखा रहा है
 ययाति (अनुवादित कहानी संग्रह)
 अनुवादक डॉ. विजय शिंदे, डॉ. अशोक बाचुळकर,
 प्रियदर्शी प्रकाशन, कोल्हापुर, प्रथम – 2004, मूल्य – 75,
 पृष्ठ – 103, ISBN: 81-87056-49-5

  ‘ययाति’(भारतीय साहित्य संग्रह की लिंक ययाति) डॉ. विजय शिंदे और डॉ. अशोक बाचुळकर द्वारा श्रेष्ठ भारतीय भाषाओं से मराठी में अनुवादित कहानी संग्रह है। हिंदी, उडिया, डोगरी, तेलुगू, कोंकणी, मैथिली, राजस्थानी, असमी, नेपाळी और तमिळ भाषा के चुनिंदा कहानियों को मराठी भाषा में लेकर आने का महत् प्रयास अनुवादकों ने किया है। ‘पिताजी’ – ज्ञानरंजन, ‘कंधा’ – सुरेश कांत, ‘खोल दो’ – सआदत हसन मंटो, ‘यहीं सच है’ – मन्नू भंडारी, ‘ययाति’ – बिपिन बिहारी मिश्र, ‘व्यापारी’ – ललित मंगोत्रा, ‘गुरु साक्षात्’ – अवधानुल विजयलक्ष्मी, ‘दरारों वाला आयना’ – मनोहरराय सरदेसाय, ‘अपराधी’ – कर्ण थामी और ‘जिल्लू’ – सुजाता आदि लेखकों की कहानियों को इस किताब में समाविष्ट किया है।

      भारत के विभिन्न भाषाओं में अमूल्य धन छिपा हुआ है, वह अनुवाद के माध्यम से वितरीत हो रहा है और साहित्य पठन की रुचि रखने वाले पाठकों के पास पहुंच रहा है। दूसरी भाषा का ज्ञान न होने के कारण साहित्यिक निधि से हम अपरिचीत और अछूते रहते हैं पर अनुवाद एक ऐसा जरिया है जिससे सांस्कृतिक और साहित्यिक आदान-प्रदान होता है। अन्य भाषा का श्रेष्ठ साहित्य अलग-अलग भाषाओं में पहुंचाने का पुण्य कार्य अनुवाद करता है। ‘ययाति’ के माध्यम से दोनों अनुवादकों का प्रयास अन्य भाषा की चर्चित, चुनिंदा, और संस्कारक्षम कहानियों का अनुवाद कर पाठकों तक पहुंचाने का रहा है।

 एकांत तपस्वी

 3.. 'एकांत तपस्वी' छोटी साईज मुखपृष्ठ.jpg दिखा रहा है

 एकांत तपस्वी (कहानी संग्रह) - डॉ. विजय शिंदे,
 शब्दालोक प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम – 2007,
 मूल्य – 125,पृष्ठ – 88, ISBN: 181-903577-5-1 
     ‘एकांत तपस्वी’(भारतीय साहित्य संग्रह की लिंक - एकांत तपस्वी) डॉ. विजय शिंदे का हिंदी भाषा में प्रकाशित पहला कहानी संग्रह है, जिसमें सोलह कहानियों का समावेश हैं। समय-दर-समय विभिन्न अनुभवों को बटोरती लेखकीय लेखनी छोटे-छोटे प्रसंगों में बहुत कुछ देखती है और कागजों पर उन अनुभवों को उतारती है। इस किताब में समाविष्ट कई कहानियों के भीतर आने वाले युवा पात्र के सर पर चढ़कर ज्यादा मात्रा में भविष्य की चिंता ही बोलने लगती है; जो न केवल लेखक की है, वर्तमान युग में जीने वाले युवकों की वास्तविक चिंता है।

      वर्तमान युग में सामाजिक स्थिति इतनी भयानक हो चुकी है कि जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। जब तक पढाई कर रहे हैं तब तक
इस परिस्थिति के ताप से युवक कोसों दूर रहते हैं। जैसे ही पढाई का दौर खत्म होता है, तब असली दौड़ शुरू होती है युवकों की। ठोकरे खाने के बाद दुःखी-पीडित मन निराशा की खाई में खो जाता है, जहां केवल अंधेरा ही अंधेरा होता है। उस घने-काले-भयानक अंधेरे में आप आंखें फाडे कहीं कुछ उजियाला है या नहीं, खोजने का असल प्रयास करते हैं। खोज-बीन में और...और अंधकार के जंगल में भटक जाते हैं। यह स्थिति हर युवा मन की है, जिनमें से कुछ को नौकरी-सुख-शांति-सुविधा-सुकून के रत्न मिलते हैं। परंतु उस ‘कुछ’ में सारी युवा पीढी नहीं। तब सवाल यह उठता है कि उस बची हुई सारी युवा पीढी का क्या होगा; जो छटपटा रही है, तड़प रही है, आधारविहीन होकर लटक रही है ? बस सवाल बनते हैं उत्तर कुछ भी नहीं। युवकों की यह स्थिति अश्वत्थामा जैसी है, जो माथे पर का रिसता-टिसता घांव लेकर देश-दुनिया में भटक रहे हैं। लेखक भी उसी पीढी का हिस्सा है, इसी दौर से गुजर चुका है, गुजर रहा है और गुजरते जा रहा है। संघर्षों के बीच से मिले कुछ अनुभव कहानी का स्वरूप धारण कर आकार ग्रहण करते गए हैं। आस-पास घटित घटनाओं का गंभीर विश्लेषण करते हैं। वैसे युवाओं को मौज-मस्ती-मजाक करना चाहिए, परंतु परिस्थिति इनके अधिकार को छीन रही है। बस ऐसा ही लेखक के साथ हुआ और उससे गंभीर बाते बाहर निकलती गई। असमय ही लेखक का युवा मन प्रौढ़ बनता गया। अनुभवों के बलबूते पर परिपक्व होती यहीं सोच कहानियों का स्वरूप धारण कर कागजों पर उतरती गई है।

      हिंदी भाषा के प्रति विशेष प्रेम रखने वाला लेखक ‘एकांत तपस्वी’ के माध्याम से भारत के दूर-दराज में वास करने वाले पर हिंदी की निस्सीम सेवा करने वाले व्यक्ति को सही मायने में किताब के भीतर समाविष्ट कर सही न्याय देता है। ‘समस्याओं की जड़’ ‘विदा ले ली’, ‘जप हरे कृष्णा हरे राम’ और ‘भिखारी’ जैसी कहानियों में यात्रा वर्णन का पूट कहानी के कलापक्ष में और अधिक निखार लेकर आता है। ‘एक और पिताजी’ में कन्या भ्रूण हत्या करने वाले पिता की निर्लज्जता का बेबाकी से वर्णन है, और डॉक्टरों का यह कृत्य किसी कसाई से कम नहीं बताता है। ‘उपहासात्मक हंसी’, ‘कभी-कभी...’, ‘स्वाभीमान...’, ‘लिफाफा’ जैसी कहानियां शिक्षा जगत् के विविध पहलू पर प्रकाश डालती है। ‘कौन सिलेगा’, ‘आबासाहब की मुछें’, ‘प्यारे तकिए को’, जैसी कहानियों में व्यंग्य की पैनी धार भी देखी जाती सकती है।

 इक्कीसवीं सदी का हिंदी साहित्यः स्थिति एवं संभावनाएं

 4.. 'इक्कीसवीं सदी का हिंदी साहित्यः स्थिति एवं संभावनाएं' छोटी साईज मुखपृष्ठ.jpg दिखा रहा है

 इक्कीसवीं सदी का हिंदी साहित्यः स्थिति एवं संभावनाएं 
 सं. डॉ. विजय शिंदे, डॉ. रंजना चावडा, डॉ.सुलक्षणा जाधव, 
 राज पब्लीशिंग हाऊस, जयपुर, प्रथम –2012, 
 मूल्य – 995, पृष्ठ – 248, ISBN: 978-93-81005-31-6 
     
      देखते-देखते इक्कीसवीं सदी का एक दशक गुजर गया। परिस्थितियां बदल रही हैं; विश्व स्तर पर 2020 या उसके बाद के भारत की स्थितियों की तरफ देखने का नजरिया भी बदल रहा है। उभरती हुई एक बडी ताकद के नाते अमरिका जैसे विकसित देश भारत की तरफ स्पर्धा की दृष्टि से देख रहे हैं। परंतु हमारे मन में साशंकता है... क्यों? क्योंकि घर की मुर्गी दाल बराबर समझने की हमारी आदत है। लेकिन थोडा सोचे, दिमाग पर जोर दें तो दांवे के साथ कह सकते हैं 2020 तक ना सही थोडा आगे जाकर भारत विश्व की बडी ताकद बनेगा इसमें कोई शक नहीं।

      बडी ताकद, विश्व के साथ स्पर्धा, गिने-चुने लोगों में भारत का स्थान कानों को सुनने के लिए और पढ़ने के लिए अच्छा लगता है। चारों तरफ से भारत का परिवर्तन हो रहा है, खुशी है। यह परिवर्तन जैसे उद्योग और आर्थिक दृष्टि से हो रहा है वैसे ही सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक स्थितियों में होगा और इसका असर साहित्यिक दृष्टियों से भी पडेगा। भारतीय व्यक्ति जैसे-जैसे बदल रहा है वैसे-वैसे उसकी भाषा भी बदल रही है। वह समय दूर नहीं जहां भारत की सारी भाषाएं एक-दूसरे के साथ घुल-मिलकर एक नया रूप धारण करेंगी। विविध कार्यों से एक आदमी कई गांवों, शहरों और देशों में पहुंच रहा है। देश एवं भाषाओं की सीमाओं को लांघ रहा है। ऐसी स्थिति में साहित्य भी बदले आश्चर्य नहीं लगेगा। वर्तमान का वर्णन और भविष्य का संकेत साहित्य है। कुछ साल पहले साहित्य में पीडित शोषित वर्ग का चित्रण नाममात्र रहा लेकिन आज उसकी बाढ़ आ चुकी है। दबे-कुचले लोगों ने अपनी वाणी को धारदार बनाकर साहित्य जगत् को खंगाल डाला पर इसके संकेत तो 1920-1930 से मिल रहे थे। मनुष्य की कल्पनाएं साहित्य में उतरती है और साहित्य का आधार लेकर विज्ञान विकसित होता है। ‘पुष्पक यान’ का जिक्र रामायण में आया; आधुनिक युग में हवाई जहाज बने। भारत का आरंभिक साहित्य रामायण-महाभारतीय युद्धों से प्रभावित है और रामायण-महाभारत में युद्ध से संबंधित कई ताकतों का जिक्र है, जिनको काल्पनिक मानकर मजाक उडाया जा सकता है परंतु आज अणुशक्तियों से जोड़कर उसे देखे तो कल्पना काफुर हो जाती है। ‘इक्कीसवीं सदी में हिंदी साहित्यः स्थिति एवं संभावनाएं’ किताब के भीतर इन्हीं सूक्ष्मताओं के साथ विमर्श हुआ है। भूतकालीन एवं वर्तमानकालीन साहित्य को देखकर भविष्य का हिंदी साहित्य कौनसी करवट ले सकता है इसको पकड़ने की कोशिश इस किताब में की है। बाजारीकरण, औद्योगिकीकरण से मनुष्य एक-दूसरे के बहुत नजदीक पहुंच चुका है। एक-दूसरे के विचारों से सभी प्रभावित हो रहे हैं और यह प्रभावित होना इंसान का चहुंमुखी है। केंद्र में है अर्थ – पैसा। पैसा अपनी अंगुलियों पर आदमी को नचाने की कोशिश कर रहा है। झुग्गी-झोपडियां टूटी, पक्के घर बने; गांव टूटकर बिखर रहे हैं और नगर-शहर-महानगर बनते जा रहे हैं। रोज नवीन विकास यात्राएं और उसके साथ नव-नवीन मुश्किलें। ऐसी स्थिति में इंसानों की तकलीफें साहित्य में उतरना लाजमी है। हिंदी साहित्य का आदिकाल राजाओं और राजदरबारी कवियों का, मध्ययुग भक्ति और श्रृंगार कवियों का, आधुनिक युग नवजागरण और परिवर्तन का और भविष्य? किताब के भीतर इसी सवाल को केंद्र में रखा है।

      किताब के बहाने कई सवाल उठ सकते हैं और साहित्यकार, समीक्षक और पाठक भी इस पर बारिकी से सोच सकते हैं। विविध विधाओं और विषयों पर केंद्रित 41 आलेख किताब में समाविष्ठ किए है। प्रत्येक आलेख की केंद्रिय सोच हिंदी का भविष्य कालिन साहित्य ही रही है। डॉ. विजय शिंदे, डॉ. रंजना चावडा, डॉ. सुलक्षणा जाधव, डॉ. अनिता शिंदे, बाबू गिरी, डॉ. अशोक बाचुळकर, ज्योति दाभाडे, डॉ. शोभा ढाकणीकर, प्रेमनाथ घोडके, बालाजी जोकरे, परमेश्वर काकडे, डॉ. रमेश शिंदे, डॉ. गिरीश काशिद, रेवती कावळे, डॉ. दत्ता कोल्हारे, डॉ. धनाजी कुट्टे, डॉ. सरोज पगारे, डॉ. रेणुका मोरे, सुचिता हंगरगे, डॉ. शरफोद्दिन शेख, डॉ. सोनाली पंडित, डॉ. सुनिल बनसोडे, डॉ. संतोष तांदळे, विनोदकुमार वायचळ, जयंत बोबडे, दिग्विजय टेंगसे, श्रीकांत गोस्वामी, डॉ. मदिना शेख, डॉ. जायदा शेख, डॉ. मुकुंद कवडे, दामोदर मोरे, डॉ. मीरा निचळे, जी.एस. पाडंव, प्रकाश शिंदे, बबन सदामते, मुखत्यार शेख, शंकर शिवशेट्टे, डॉ. विनोद जाधव, डॉ. विशाला शर्मा, छाया जाधव, डॉ. सुरेश गरूड, डॉ. सुनिल जाधव, शेखर खडसे आदि समीक्षकों ने हिंदी साहित्य के भूत और वर्तमान को देख भविष्यालीन हिंदी साहित्य के संभावनाओं पर प्रकाश डाला है।
    प्रस्तुत किताबों का सक्षिप्त परिचय भारतीय साहित्य संग्रह के 'पुस्तक ऑर्ग' पर भी है। उसकी लिंक है -
(डॉ. विजय शिंदे की किताबें - भारतीय साहित्य संग्रह)