बुधवार, 25 दिसंबर 2013

तीन कविताएं

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  •             प्यारे दोस्तों 'रचनाकार' ई-पत्रिका में 'मजबूर हूं', मृत्यु तय हई है' और 'नशा' यह तीन कविताएं प्रकाशित हो गई है। तीनों कविताएं अलग विषय और अलग पृष्ठभूमि को बयां करती है। पखवाडे की कविता के अंतर्गत विजय वर्मा, जतिन दवे, मोतीलाल और अनंत आलोक के बाद क्रम से मेरी तीनों कविताएं है। आप तक उसकी लिंक पहुंचा रहा हूं। लिंक है - पखवाड़े की कविता

शुक्रवार, 6 दिसंबर 2013

मेरी किताबें


सवासीन

 1.. 'सवासीन' छोटी साईज मुखपृष्ठ.jpg दिखा रहा है 
 सवासीन (कहानी संग्रह) – लेखक डॉ. विजय शिंदे,
 प्रियदर्शी प्रकाशन, कोल्हापुर, प्रथम – 2004, मूल्य – 48,
 पृष्ठ – 94, ISBN: 81-87056-45-II

‘सवासीन’(भारतीय साहित्य संग्रह की लिंक - सवासीन) डॉ. विजय शिंदे द्वारा मराठी भाषा में लिखित पहला कहानी संग्रह है, जिसमें दस कहानियों का समावेश हैं। प्रस्तुत कहानी संग्रह को ‘महाराष्ट्र राज्य साहित्य और संस्कृति मंडल’ का प्रकाशनार्थ अनुदान भी प्राप्त हुआ है।
      गांव, गांव के भीतर के विविध पात्र और घटनाओं को केंद्र में रख कर बडे रोचक और मार्मिक ढंग से इस कहानी संग्रह की कहानियां सजी है। ग्रामीण भाषा की सुंदर गंध विविध पात्रों के माध्यम से कहानियों में उतरती है। ‘सवासीन’ कहानी में एक सुहागन का ‘नाग’ जैसे विषैले सांप के काटने से मरना आम ग्रामीण वास्तविकता को प्रकट करता है। आज भी गांवों के भीतर सांपों के काटने से कई लोग मरते हैं। अस्पताल की अपेक्षा मदिरों और झाड़-फूंक पर विश्वास करने वाले लोग बेवजह अपनी जान से हाथ धो बैठते हैं। मन-मस्तिष्क और दिल में एक मर्मांतक पीडा निर्माण करने वाली ‘सवासीन’ कहानी शीर्ष होने को सही ठहराती है। ‘तयब्याचं हाटेल’, ‘सुतारपाटील’, और ‘प्वार’ जैसी कहानियों में विशिष्ट पात्र को केंद्र में रख कर बुना गया है। पात्रों की सूक्ष्मताएं, उनकी सही-गलत आदतों का चित्रण उनमें वर्णित है। ‘फाकड्या’, ‘आकणीचं पाय’ जैसी कहानियों में आदतों से मजबूर व्यक्ति नैतिकता को छोड़ कर गलत कदम उठाता नजर आता है। शराब की लत से पीडित व्यक्ति खुद तो बरबाद होता ही है पर अपने परिवार को भी ले डूबता है, इसका सार्थक रेखांकन ‘फाकड्या’ में है। ‘आकणीचं पाय’ कहानी में पतित हो चुकी आकणी अपने मां-बाप, परिवार और पति की इज्जत दांव पर लगा कर केवल शरीर सुख पाने के लिए झूठ का सहारा लेकर बचने की कोशिश करते नजर आती है। ड्रायव्हरों की जिंदगी संघर्षपूर्ण है और हमेशा उसके लिए खतरा बना रहता है। देश में विभिन्न जनजातियां अपराधिक कृत करती है केवल पेठ की भूख मिटाने के लिए और परिवार का पालन-पोषण करने के लिए। ‘धडपड’ कहानी में ऐसे ही अपराधिक जनजाति के हाथों अपनी जान गवां बैठे ड्रायव्हर का वर्णन है। ड्रायव्हर और अपराध को अंजाम देते खून की होली खेलते लुटेरों का वर्णन ‘धडपड’ में है। अपराधिक जनजातियां चोरी-डकैती करती है और इसे अंजाम देते वक्त इंसान को जान से मारने का पाप केवल जीने के लिए की कोशिश का नतिजा होता है। अर्थात् जीने का जबरदस्त संघर्ष दोनों तरफ से ‘धडपड’ में है।  मोबाईल और फोन से गांवों की दुनिया बदल चुकी है और इस आधुनिक उपकरण से मानवीयता खत्म होने का संकेत ‘क्रिंग-क्रिंग’ कहानी में है। खाना प्राप्ति का एक जरिया शिकार है। ‘माग’ कहानी में कुत्तों की मदत से खरगोश का शिकार करना, उसकी रोचकता और चित्र सौंदर्य बारिकी से उकेरा गया है। ‘जेव्हा पाईप फुटतो’ में दुर्घटनावश हो गई गलती से पीडित बच्चे की मानसिकता का वर्णन है।
      महाराष्ट्र और महाराष्ट्रीयन गांवों के विविध घटनाओं में से कुछ घटनाओं को पाठकों तक पहुंचाने का लेखक का प्रयास रहा है। भाषाई सौंदर्य, घटनाओं को पिरोने की अद्भुत कला, कहानियों को चरम तक पहुंचाने की क्षमता लेखकीय कुशलता मानी जाएगी।

 ययाति

 2.. 'ययाति' छोटी साईज मुखपृष्ठ.jpg दिखा रहा है
 ययाति (अनुवादित कहानी संग्रह)
 अनुवादक डॉ. विजय शिंदे, डॉ. अशोक बाचुळकर,
 प्रियदर्शी प्रकाशन, कोल्हापुर, प्रथम – 2004, मूल्य – 75,
 पृष्ठ – 103, ISBN: 81-87056-49-5

  ‘ययाति’(भारतीय साहित्य संग्रह की लिंक ययाति) डॉ. विजय शिंदे और डॉ. अशोक बाचुळकर द्वारा श्रेष्ठ भारतीय भाषाओं से मराठी में अनुवादित कहानी संग्रह है। हिंदी, उडिया, डोगरी, तेलुगू, कोंकणी, मैथिली, राजस्थानी, असमी, नेपाळी और तमिळ भाषा के चुनिंदा कहानियों को मराठी भाषा में लेकर आने का महत् प्रयास अनुवादकों ने किया है। ‘पिताजी’ – ज्ञानरंजन, ‘कंधा’ – सुरेश कांत, ‘खोल दो’ – सआदत हसन मंटो, ‘यहीं सच है’ – मन्नू भंडारी, ‘ययाति’ – बिपिन बिहारी मिश्र, ‘व्यापारी’ – ललित मंगोत्रा, ‘गुरु साक्षात्’ – अवधानुल विजयलक्ष्मी, ‘दरारों वाला आयना’ – मनोहरराय सरदेसाय, ‘अपराधी’ – कर्ण थामी और ‘जिल्लू’ – सुजाता आदि लेखकों की कहानियों को इस किताब में समाविष्ट किया है।

      भारत के विभिन्न भाषाओं में अमूल्य धन छिपा हुआ है, वह अनुवाद के माध्यम से वितरीत हो रहा है और साहित्य पठन की रुचि रखने वाले पाठकों के पास पहुंच रहा है। दूसरी भाषा का ज्ञान न होने के कारण साहित्यिक निधि से हम अपरिचीत और अछूते रहते हैं पर अनुवाद एक ऐसा जरिया है जिससे सांस्कृतिक और साहित्यिक आदान-प्रदान होता है। अन्य भाषा का श्रेष्ठ साहित्य अलग-अलग भाषाओं में पहुंचाने का पुण्य कार्य अनुवाद करता है। ‘ययाति’ के माध्यम से दोनों अनुवादकों का प्रयास अन्य भाषा की चर्चित, चुनिंदा, और संस्कारक्षम कहानियों का अनुवाद कर पाठकों तक पहुंचाने का रहा है।

 एकांत तपस्वी

 3.. 'एकांत तपस्वी' छोटी साईज मुखपृष्ठ.jpg दिखा रहा है

 एकांत तपस्वी (कहानी संग्रह) - डॉ. विजय शिंदे,
 शब्दालोक प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम – 2007,
 मूल्य – 125,पृष्ठ – 88, ISBN: 181-903577-5-1 
     ‘एकांत तपस्वी’(भारतीय साहित्य संग्रह की लिंक - एकांत तपस्वी) डॉ. विजय शिंदे का हिंदी भाषा में प्रकाशित पहला कहानी संग्रह है, जिसमें सोलह कहानियों का समावेश हैं। समय-दर-समय विभिन्न अनुभवों को बटोरती लेखकीय लेखनी छोटे-छोटे प्रसंगों में बहुत कुछ देखती है और कागजों पर उन अनुभवों को उतारती है। इस किताब में समाविष्ट कई कहानियों के भीतर आने वाले युवा पात्र के सर पर चढ़कर ज्यादा मात्रा में भविष्य की चिंता ही बोलने लगती है; जो न केवल लेखक की है, वर्तमान युग में जीने वाले युवकों की वास्तविक चिंता है।

      वर्तमान युग में सामाजिक स्थिति इतनी भयानक हो चुकी है कि जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। जब तक पढाई कर रहे हैं तब तक
इस परिस्थिति के ताप से युवक कोसों दूर रहते हैं। जैसे ही पढाई का दौर खत्म होता है, तब असली दौड़ शुरू होती है युवकों की। ठोकरे खाने के बाद दुःखी-पीडित मन निराशा की खाई में खो जाता है, जहां केवल अंधेरा ही अंधेरा होता है। उस घने-काले-भयानक अंधेरे में आप आंखें फाडे कहीं कुछ उजियाला है या नहीं, खोजने का असल प्रयास करते हैं। खोज-बीन में और...और अंधकार के जंगल में भटक जाते हैं। यह स्थिति हर युवा मन की है, जिनमें से कुछ को नौकरी-सुख-शांति-सुविधा-सुकून के रत्न मिलते हैं। परंतु उस ‘कुछ’ में सारी युवा पीढी नहीं। तब सवाल यह उठता है कि उस बची हुई सारी युवा पीढी का क्या होगा; जो छटपटा रही है, तड़प रही है, आधारविहीन होकर लटक रही है ? बस सवाल बनते हैं उत्तर कुछ भी नहीं। युवकों की यह स्थिति अश्वत्थामा जैसी है, जो माथे पर का रिसता-टिसता घांव लेकर देश-दुनिया में भटक रहे हैं। लेखक भी उसी पीढी का हिस्सा है, इसी दौर से गुजर चुका है, गुजर रहा है और गुजरते जा रहा है। संघर्षों के बीच से मिले कुछ अनुभव कहानी का स्वरूप धारण कर आकार ग्रहण करते गए हैं। आस-पास घटित घटनाओं का गंभीर विश्लेषण करते हैं। वैसे युवाओं को मौज-मस्ती-मजाक करना चाहिए, परंतु परिस्थिति इनके अधिकार को छीन रही है। बस ऐसा ही लेखक के साथ हुआ और उससे गंभीर बाते बाहर निकलती गई। असमय ही लेखक का युवा मन प्रौढ़ बनता गया। अनुभवों के बलबूते पर परिपक्व होती यहीं सोच कहानियों का स्वरूप धारण कर कागजों पर उतरती गई है।

      हिंदी भाषा के प्रति विशेष प्रेम रखने वाला लेखक ‘एकांत तपस्वी’ के माध्याम से भारत के दूर-दराज में वास करने वाले पर हिंदी की निस्सीम सेवा करने वाले व्यक्ति को सही मायने में किताब के भीतर समाविष्ट कर सही न्याय देता है। ‘समस्याओं की जड़’ ‘विदा ले ली’, ‘जप हरे कृष्णा हरे राम’ और ‘भिखारी’ जैसी कहानियों में यात्रा वर्णन का पूट कहानी के कलापक्ष में और अधिक निखार लेकर आता है। ‘एक और पिताजी’ में कन्या भ्रूण हत्या करने वाले पिता की निर्लज्जता का बेबाकी से वर्णन है, और डॉक्टरों का यह कृत्य किसी कसाई से कम नहीं बताता है। ‘उपहासात्मक हंसी’, ‘कभी-कभी...’, ‘स्वाभीमान...’, ‘लिफाफा’ जैसी कहानियां शिक्षा जगत् के विविध पहलू पर प्रकाश डालती है। ‘कौन सिलेगा’, ‘आबासाहब की मुछें’, ‘प्यारे तकिए को’, जैसी कहानियों में व्यंग्य की पैनी धार भी देखी जाती सकती है।

 इक्कीसवीं सदी का हिंदी साहित्यः स्थिति एवं संभावनाएं

 4.. 'इक्कीसवीं सदी का हिंदी साहित्यः स्थिति एवं संभावनाएं' छोटी साईज मुखपृष्ठ.jpg दिखा रहा है

 इक्कीसवीं सदी का हिंदी साहित्यः स्थिति एवं संभावनाएं 
 सं. डॉ. विजय शिंदे, डॉ. रंजना चावडा, डॉ.सुलक्षणा जाधव, 
 राज पब्लीशिंग हाऊस, जयपुर, प्रथम –2012, 
 मूल्य – 995, पृष्ठ – 248, ISBN: 978-93-81005-31-6 
     
      देखते-देखते इक्कीसवीं सदी का एक दशक गुजर गया। परिस्थितियां बदल रही हैं; विश्व स्तर पर 2020 या उसके बाद के भारत की स्थितियों की तरफ देखने का नजरिया भी बदल रहा है। उभरती हुई एक बडी ताकद के नाते अमरिका जैसे विकसित देश भारत की तरफ स्पर्धा की दृष्टि से देख रहे हैं। परंतु हमारे मन में साशंकता है... क्यों? क्योंकि घर की मुर्गी दाल बराबर समझने की हमारी आदत है। लेकिन थोडा सोचे, दिमाग पर जोर दें तो दांवे के साथ कह सकते हैं 2020 तक ना सही थोडा आगे जाकर भारत विश्व की बडी ताकद बनेगा इसमें कोई शक नहीं।

      बडी ताकद, विश्व के साथ स्पर्धा, गिने-चुने लोगों में भारत का स्थान कानों को सुनने के लिए और पढ़ने के लिए अच्छा लगता है। चारों तरफ से भारत का परिवर्तन हो रहा है, खुशी है। यह परिवर्तन जैसे उद्योग और आर्थिक दृष्टि से हो रहा है वैसे ही सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक स्थितियों में होगा और इसका असर साहित्यिक दृष्टियों से भी पडेगा। भारतीय व्यक्ति जैसे-जैसे बदल रहा है वैसे-वैसे उसकी भाषा भी बदल रही है। वह समय दूर नहीं जहां भारत की सारी भाषाएं एक-दूसरे के साथ घुल-मिलकर एक नया रूप धारण करेंगी। विविध कार्यों से एक आदमी कई गांवों, शहरों और देशों में पहुंच रहा है। देश एवं भाषाओं की सीमाओं को लांघ रहा है। ऐसी स्थिति में साहित्य भी बदले आश्चर्य नहीं लगेगा। वर्तमान का वर्णन और भविष्य का संकेत साहित्य है। कुछ साल पहले साहित्य में पीडित शोषित वर्ग का चित्रण नाममात्र रहा लेकिन आज उसकी बाढ़ आ चुकी है। दबे-कुचले लोगों ने अपनी वाणी को धारदार बनाकर साहित्य जगत् को खंगाल डाला पर इसके संकेत तो 1920-1930 से मिल रहे थे। मनुष्य की कल्पनाएं साहित्य में उतरती है और साहित्य का आधार लेकर विज्ञान विकसित होता है। ‘पुष्पक यान’ का जिक्र रामायण में आया; आधुनिक युग में हवाई जहाज बने। भारत का आरंभिक साहित्य रामायण-महाभारतीय युद्धों से प्रभावित है और रामायण-महाभारत में युद्ध से संबंधित कई ताकतों का जिक्र है, जिनको काल्पनिक मानकर मजाक उडाया जा सकता है परंतु आज अणुशक्तियों से जोड़कर उसे देखे तो कल्पना काफुर हो जाती है। ‘इक्कीसवीं सदी में हिंदी साहित्यः स्थिति एवं संभावनाएं’ किताब के भीतर इन्हीं सूक्ष्मताओं के साथ विमर्श हुआ है। भूतकालीन एवं वर्तमानकालीन साहित्य को देखकर भविष्य का हिंदी साहित्य कौनसी करवट ले सकता है इसको पकड़ने की कोशिश इस किताब में की है। बाजारीकरण, औद्योगिकीकरण से मनुष्य एक-दूसरे के बहुत नजदीक पहुंच चुका है। एक-दूसरे के विचारों से सभी प्रभावित हो रहे हैं और यह प्रभावित होना इंसान का चहुंमुखी है। केंद्र में है अर्थ – पैसा। पैसा अपनी अंगुलियों पर आदमी को नचाने की कोशिश कर रहा है। झुग्गी-झोपडियां टूटी, पक्के घर बने; गांव टूटकर बिखर रहे हैं और नगर-शहर-महानगर बनते जा रहे हैं। रोज नवीन विकास यात्राएं और उसके साथ नव-नवीन मुश्किलें। ऐसी स्थिति में इंसानों की तकलीफें साहित्य में उतरना लाजमी है। हिंदी साहित्य का आदिकाल राजाओं और राजदरबारी कवियों का, मध्ययुग भक्ति और श्रृंगार कवियों का, आधुनिक युग नवजागरण और परिवर्तन का और भविष्य? किताब के भीतर इसी सवाल को केंद्र में रखा है।

      किताब के बहाने कई सवाल उठ सकते हैं और साहित्यकार, समीक्षक और पाठक भी इस पर बारिकी से सोच सकते हैं। विविध विधाओं और विषयों पर केंद्रित 41 आलेख किताब में समाविष्ठ किए है। प्रत्येक आलेख की केंद्रिय सोच हिंदी का भविष्य कालिन साहित्य ही रही है। डॉ. विजय शिंदे, डॉ. रंजना चावडा, डॉ. सुलक्षणा जाधव, डॉ. अनिता शिंदे, बाबू गिरी, डॉ. अशोक बाचुळकर, ज्योति दाभाडे, डॉ. शोभा ढाकणीकर, प्रेमनाथ घोडके, बालाजी जोकरे, परमेश्वर काकडे, डॉ. रमेश शिंदे, डॉ. गिरीश काशिद, रेवती कावळे, डॉ. दत्ता कोल्हारे, डॉ. धनाजी कुट्टे, डॉ. सरोज पगारे, डॉ. रेणुका मोरे, सुचिता हंगरगे, डॉ. शरफोद्दिन शेख, डॉ. सोनाली पंडित, डॉ. सुनिल बनसोडे, डॉ. संतोष तांदळे, विनोदकुमार वायचळ, जयंत बोबडे, दिग्विजय टेंगसे, श्रीकांत गोस्वामी, डॉ. मदिना शेख, डॉ. जायदा शेख, डॉ. मुकुंद कवडे, दामोदर मोरे, डॉ. मीरा निचळे, जी.एस. पाडंव, प्रकाश शिंदे, बबन सदामते, मुखत्यार शेख, शंकर शिवशेट्टे, डॉ. विनोद जाधव, डॉ. विशाला शर्मा, छाया जाधव, डॉ. सुरेश गरूड, डॉ. सुनिल जाधव, शेखर खडसे आदि समीक्षकों ने हिंदी साहित्य के भूत और वर्तमान को देख भविष्यालीन हिंदी साहित्य के संभावनाओं पर प्रकाश डाला है।
    प्रस्तुत किताबों का सक्षिप्त परिचय भारतीय साहित्य संग्रह के 'पुस्तक ऑर्ग' पर भी है। उसकी लिंक है -
(डॉ. विजय शिंदे की किताबें - भारतीय साहित्य संग्रह)





बुधवार, 13 नवंबर 2013

आधी रात की नाजायज संतानों का विडंबनात्मक चलचित्र

आधी रात की संतानें - किताब मुखपृष्ठ.JPG
‘आधी रात की संतानें’ उपन्यास में भी सलमान रश्दी ने भारत-पाक-बांग्लादेश के परिदृश्य के लगभग 65 वर्ष की घटनाओं को पकड़ कर एक पहेली में बांधा है, प्रतीकात्मकता दी है और ‘कोडिंग’ है। पाठक के लिए यह उपन्यास आवाहन है उस दृष्टि से कि पहेली सुलझाओं, प्रतीकों के अर्थ जानों और ‘डिकोडिंग’ करो। 1915 को शुरू होने वाला यह उपन्यास  1977-78 तक की घटनाओं को बांधता है। आदम अजिज से शुरू होकर- अमीना अजिज (सिनाई), अहमद सिनाई, सलीम सिनाई और आदम सिनाई तक पहुंचता है। परंतु यह सफर आसान नहीं अनेक कोनों, घुमाओं एवं मोडों से होकर चरमसीमा तक पहुंचता है। इन पात्रों के साथ अनेक पात्र, उपपात्र जुड़कर आते हैं और प्रतीकात्मक तौर पर हिंदुस्तान से निर्मित भारत, पाकीस्तान, बांग्लादेश तथा अन्य छोटे-मोटे हिस्सों को ‘आधी रात की संतानें’ बनाकर उसकी अंदरूनी परिस्थिति का वर्णन करते हैं। लेखक ने मानवीय पात्रों को देश-प्रदेश से जोड़ कर प्रदेशवाद, सांप्रदायिकता, विभाजन, अलगाववाद, युद्ध, संघर्ष, अमीरी-गरीबी, नंपुसकता, गांधीजी का खून, आपातकाल... आदि घटनाओं का विड़ंबनात्मक तरीके से वर्णन किया है। प्रस्तुत किताब बेस्ट सेलर बुकर प्राप्त किताब रही है और दो-तीन साल पहले इस पर 'मिडनाईट चिंल्ड्रन' फिल्म भी बनी है। एक उत्कृष्ट किताब की समीक्षा पाठकों तक पहुंचाने का प्रयास है। समीक्षा को पढकर पाठकों का फिल्म देखने का अगर मन कर रहा है तो यु टूब पर फिल्म भी देख सकते हैं। 'आधी रात की संतानें' किताब को केंद्र में रख कर समीक्षा की है और उक्त समीक्षा 'शुरूआत' ई-पत्रिका में प्रकाशित हुई है। मेरे दोस्तों के लिए उसकी लिंक यहां दे रहा हूं। लिंक है - आधी रात की नाजायज संतानों का विड़ंबनात्मक ...  इस लिंक को क्लिक करें आप मूल समीक्षा तक पहुंच सकते हैं।

शनिवार, 26 अक्तूबर 2013

धूमिल की कविता में आदमी


कॉमन मॅन फोटो.jpg    सुदामा पांडे ‘धूमिल’ जी का नाम हिंदी साहित्य में सम्मान के साथ लिया जाता है। तीन ही कविता संग्रह लिखे पर सारी प्रजातांत्रिक व्यवस्था और देश की स्थितियों को नापने में सफल रहें। समकालीन कविता के दौर में एक ताकतवर आवाज के नाते इनकी पहचान रही हैं। इनकी कविताओं में सहज, सरल और चोटिल भाषा के वाग्बाण हैं, जो पढ़ने और सुनने वाले को घायल करते हैं। कविताओं में संवादात्मकता है, प्रवाहात्मकता है, प्रश्नार्थकता है। कविताओं को पढ़ते हुए लगता है कि मानो हम ही अपने अंतर्मन से संवाद कर रहे हो। आदमी हमेशा चेहरों पर चेहरे चढाकर अपनी मूल पहचान गुम कर देता है। नकाब और नकली चेहरों के माध्यम से हमेशा समाज में अपने-आपको प्रस्तुत करता है, पर वह अपने अंतर आत्मा के आईने के सामने हमेशा नंगा रहता है। उसे अच्छी तरह से पता होता है कि मैं कौन हूं और आदमी होने के नाते मेरी औकात क्या है।

‘धूमिल’ की कई कविताओं में रह-रहकर ‘आदमी’ आ जाता है और आदमी यह शब्द ‘पुरुष’ और ‘स्त्री’ का प्रतिनिधित्व करता है। 1947 को आजादी मिली और हर एक व्यक्ति खुद को बेहतर बनाने में जूट गया। देश विभाजन के दौरान आदमीयत धर्मों के कारण दांव पर लगी थी। विभाजन के बाद दो अलग-अलग राष्ट्र हो गए पर एकता गायब हो गई, हर जगह पर आदमी आदमी को कुचलने लगा। आजादी के बाद जो सपने प्रत्येक भारतवासी ने देखे थे वह खंड़-खड़ हो गए और उस स्थिति से निराशा, दुःख, पीडा, मोहभंग, भ्रमभंग से नाराजी के शब्द फूटने लगे। इन स्थितियों में हर बार इंसानियत, मानवीयता और आदमीयत दांव पर लगी, वह चोटिल होकर तड़पने लगी तथा उसे तार-तार किया गया उसका शरीर चौराहे पर टांगा गया। धूमिल की कविता में इसी आदमी का बार-बार जिक्र हुआ है। 'रचनाकर' में इन्हीं विचार और विवेचन के साथ धूमिल की कविता पर आलेख प्रकाशित हुआ है उसकी लिंक दे रहा हूं। लिंक है -विजय शिंदे का आलेख - धूमिल की कविता में आदमी प्रस्तुत आलेख 'रिसर्च फ्रंट' शोध पत्रिका में भी प्रकाशित हुआ है उसकी लिंक है - http://www.researchfront.in/02%20APR-JUNE%202013/7%20Dhumil%20ki%20kavita%20me%20aadami%20-%20Dr.pdf

सोमवार, 21 अक्तूबर 2013

'अनुभूति' ई-पत्रिका में चार कविताएं

'अनुभूति' हिंदी साहित्य जगत् की प्रमुख ई-पत्रिकाओं में गिनी जाती है। 'अनुभूति' के माध्यम से कविताओं को और 'अभिव्यक्ति' के माध्यम से कहानी साहित्य को प्रकाशित किया जाता है। हिंदी साहित्य के प्रकाशन का यह सार्थक मंच है। 'अनुभूति' साप्ताहिक पत्रिका है और इस सप्ताह के छंदमुक्त कविताओं में 'असुरों की गली में', 'बारिश थम गई', 'भविष्य के प्रति आशा' और 'मजबूर हूं' यह चार कविताएं प्रकाशित हो गई है। आपको यहां पर उन कविताओं की लिंक दे रहा हूं, लिंक को क्लिक करने पर आपके लिए कविताएं पढने हेतु उपलब्ध होंगी। लिंक है - डॉ. विजय शिंदे - अनुभूति छंदमुक्त में- 'असुरों की गली में', 'बारिश थम गई', 'भविष्य के प्रति आशा', 'मजबूर हूँ'आशा है मेरे दोस्तों को यह कविताएं पसंद आएगी।

शनिवार, 5 अक्तूबर 2013

अण्णा, मुझे जीना है

   अण्णा, मुझे जीना है

मूल मराठी कहानी - भीमराव वाघचौरे

अनुवाद - डॉ. विजय शिंदे

        मराठी के प्रसिद्ध ग्रामीण कथाकार भीमराव वाघचौरे जी की मराठी कहानी 'अण्णा, मुझे जीना है' का  अनुवाद 'लेखनी' ई-पत्रिका में अक्तूबर महिने के 'कहानी समकालीन' स्तंभ में प्रकाशित हो चुका है। प्रस्तुत कहानी भाई-बहन के बीच के गहरे रिश्ते और गरीबी से पीडित परिवार का चित्रण करती है। हिंदी के पाठकों को यह कहानी पसंद आएगी। प्रस्तुत कहानी की लिंक आगे दे रहा हूं, आप 'कहानी समकालीन' स्तंभ में इसे पढ सकते हैं। लिंक है -  LEKHNI-लेखनी

OCTOBER-2013-HINDI

 

 

लेखनी का अंक नवंबर से दिखना बंद हो जाएगा अतः पाठकों के लिए पूरी कहानी यहां पर दे रहा हूं।

 

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 औरंगाबाद से सुदाम का तार पहुंचा वैसे ही एकाएक मेरा दिल धडकने गया। थरथराते हाथों से तार के कागज को खोला। उसमें लिखा था -

  ‘‘आक्का की तबीयत और बिगड़ गई है, जल्दी आ जाओ।’’

   ऑफिस से घर आया और पत्नी को हकीकत बताई। इस खबर के लिए पहले से तैयार पत्नी ने जितना जल्दी हो सके उतने जल्दी घर के काम निपटाए। भागते-दौड़ते दोनों भी बस स्टाप तक पहुंचे। औरंगाबाद की ओर जाने के लिए तैयार बस पकडी।

       बस चल पडी और दौड़ने लगी, उसकी गति के साथ मेरे विचार भी दौड़ने लगे...। वैसे मेरी बहन आक्का दुर्भाग्यशाली! क्रूर नियति के हाथों का खिलौना। शादी क्या हुई उसके जीवन में पीडा और दुःख का अंधेरा गहराने लगा। साल, दो साल, ...पांच साल हुए। लेकिन उसके चेहरे पर खुशी देखी नहीं गई। जीवन में आनंद की फुआरे नहीं आई...। तन-मन से हार चुकी आक्का के जीवन में बच्चे का सुख शायद नहीं लिखा था और दिनों-दिन उसकी संभावनाएं भी धुंधली होती जा रही थी। खूब कोशिश की। दवा-दारू की। जिसने जो बताया वह किया और हर जगह पर दिखाया। झांड़-फूंक किया। मंदिरों में जाकर भगवान के सामने कई बार मिन्नतें भी की... उसकी सीढियों पर माथा टेका। बड़े-बड़े अस्पतालों में विद्वान डॉक्टरों को दिखाया। एक्सरें निकाले। दो बार क्युरेंटिंग किया परंतु कोई लाभ नहीं। उसके ससुराल वाले तो बेसब्री से बच्चे का इंतजार कर रहे थे। बच्चे की कमी के कारण आक्का को हमेशा अपमान, टिका-टिप्पणियां और पीडाएं सहनी पड़ रही थी। उसका पति दूसरी शादी का कब का मन बना चुका था। उनको समझा-बुझाकर आज तक जबरदस्ती रोके रखा था।

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       ...कुछ दिन पहले की बात है, ...एक दिन आक्का रोते-बिलखते घर आई! पेट के दर्द से पीडित और असहनीय वेदनाओं से कराहती हुई। बिस्तर पर पड़े-पड़े पेट को दोनों हाथों से पकड़कर तड़प रही थी। सबकुछ मुश्किल और असहनीय था उसके लिए। भीतरी नारी वेदना। किसी को बता नहीं सकते कि क्या हुआ है। उसको समझा-बुझाने के सिवाय हमारे हाथों में कुछ भी नहीं था। परंतु दर्द बढ़ते ही जा रहा था। जब उसके लिए असहनीय हुआ तो तत्काल वैजापुर के एक गायनोकॉलॉजिस्ट को दिखाया। उन्होंने भीतर-बाहर से चेकअप किया और औरंगाबाद के सरकारी अस्पताल ‘घाटी’ में लेकर जाने की सलाह दी। हम बिना समय गवाएं घाटी में आए। मेरा छोटा भाई सुदाम भी इसी शहर में था। वह भी आ गया। उसकी वजह से कई मुश्किलें आसान हो गई। दो दिनों में सारे टेस्ट करवाए गए। गर्भाशय की बायोप्सी भी की। बायोप्सी का रिपोर्ट जब तक आए तब तक आक्का को घाटी में ही रखा जाना था।

       बायोप्सी की रिपोर्ट आई और हम सब पर मानो पहाड़ टूट पडा। ...कँसर! और वह भी अपनी चरम को छू चुका था, नियंत्रण के बाहर। सुनते ही दिल बैठ गया। लगने लगा कि क्रूर काल ने मेरी बहन के साथ गंदा मजाक किया है और विषैले नाखुनों से दिल पर हजारों खरौंचें उठाकर लहुलूहान किया है। हारे हुए मन के साथ साहस जुटाया और डॉक्टर को पूछा –

       ‘‘...डॉक्टरसाहब अगर गर्भाशय को निकाला जाए तो?’’

       ‘‘...........’’

       पर नहीं। यह भी संभव नहीं था। डॉक्टर ने साफ तरीके से जवाब दे दिया था। कँसर पूरा फैल चुका है और नियंत्रण के बाहर है। गर्भाशय मुख पूरा सड़ चुका था। वाह रे तकदीर! आखिर तक आक्का को बच्चे के सुख से दूर रखा और अब उसे सडाया भी। तकदीर के खेल ने आक्का की सारी जिंदगी  तबाह कर दी थी। जलाकर राख कर दी थी। और मेरी छोटी प्यारी बहन जिंदा होकर भी लाश बन चुकी थी।

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अचानक बस के ब्रेक लगने से झटका लगा और मेरे विचारों के तार टूट गए। बाहर देखा, बस देवगांव की ओर मुड़कर रूकी थी। आधा सफर तय हुआ था। एकाध घंटे का सफर बाकी था...। पर कोई बस स्टाफ नहीं, गांव से ही दूर बस क्यों रूकी? दुबारा बाहर झांककर देखा। सामने से एक प्रेतयात्रा गुजर रही थी...। सजी हुई अरथी, कंधा देने वाले लोग, रोती-बिलखती महिलाएं, उनके पीछे चुपचाप रेंगता हुआ पुरुषों का हुजूम...। दृश्य देखकर मेरा मन अरथी पर अटक चुका। ऊपर हरीभरी साडी ढकी थी और कंगण सजे थे। तर्क किया कि जिसे लेकर जा रहे हैं वह जरूर सुहागन स्त्री है। प्रेतयात्रा आगे सरकी और बस दुबारा शुरू हुई। खिड़की से झांकते हुए एक संवारी ने इतनी देर से रोके रखी सांस को छोड़ते हुए कहा – 

       ‘‘कुछ भरौसा नही इंसान की जिंदगी का! केवल पानी पर उठा बुलबुला है। कब फुटेगा बताया नहीं जा सकता...। इसीलिए तो संत तुकाराम कह गए कि ’देह नष्ट होने वाली है और एक दिन सबको इस दुनिया को छोड़कर जाना है...।’’

       बातचीत का सिलसिला जारी रहा। ईश्वर, नसीब... और अनेक विषयों पर बातें होने लगी। मेरा बन इन बातों से उड़ गया। अरथी और अरथी पर सजी हरी साडी का दृश्य मेरी आंखों के सामने से हटने का नाम नहीं ले रहा था। मन की व्याकुलता बढ़ती गई और वह अंदर ही अंदर आक्रोश करने लगा। आक्का की तबीयत कैसी होगी? क्या होगा? और कौनसी खबर सुननी पडेगी...। आतंक और चिंता बढ़ती जा रही थी।

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       आक्का मुझसे भी छोटी थी परंतु मेरे लिए उसने बहुत सहा था। मैं उसकी मेहनत और त्याग की वापसी कभी भी नहीं कर सकता हूं। आज मैं जिस मकाम पर हूं वह केवल उसकी बदौलत है। मेरे लिए उसने मजदूरी की, अभाव सहे और पसीना बहाया। ...उससे जुड़ी कई यादें मन की तह से ऊपर उठ रही थी। एक के बाद एक घटनाएं आंखों के सामने से गुजर रही थी।

       बहत्तर-चौहत्तर के सूखे की घटनाएं हैं। सूखे की मार से चारों और विरानता फैल चुकी थी। आम आदमी दाने-दाने के लिए मोहताज था। लोगों के मन में भी विरानता, दुःख, पीडा फैल चुकी थी। जिंदा रहने के लिए लोग गांव-गांव और जंगल-जंगल भटक रहे थे। अपना गांव-घर छोड़कर दर-दर की ठोकरें खाने के लिए इंसान मजबूर था। अपनी भूमि से गहराई तक जुड़ी मन की जड़े उखाड़ते वक्त मन को असंख्य वेदनाएं हो रही थी। ...मेरे पिता जी के ऊपर सात बच्चे और दादी मां का बोझ था। सूखे से आस-पास के इलाखे की सारी खेती-बाडी तबाह हो गई थी, मजदूरी का भी काम नहीं मिल रहा था। सबके खाली पेट। जो था उसे बेच-बाचकर खा चुके थे। अब बेचने के लिए भी कुछ बाकी नहीं था। एक समय जलने वाली चूल्हे की आग भी ठंडी पड़ चुकी थी। गरीबी और सूखे से हाथ बंध चुके थे। क्या करे, क्या नहीं करे समझ में नहीं आ रहा था। पिताजी और हमारा परिवार काल के विक्राल हाथों से चारों ओर से घिर चुका था।

       गांव छोड़कर जाए तो यहां बचा-खुचा किसके भरौसे छोडे? अगर गांव छोड़े भी तो यहां दादी के साथ रहेगा कौन और खाए क्या? चिंता सता रही थी। बुरे दिनों में कोई किसी का नहीं होता। घर छोडे तो आंगन भी पराया हो जाता है। मेरे पढ़ाई की चिंता पिता जी को सता रही थी। दादी के पास रहने के लिए पढ़ाई को रोकना उन्हें मंजूर नहीं था। अपनी भूख, पेट, अभाव और चिंताओं से उन्हें मेरी पढ़ाई जरूरी लग रही थी। दिनों-दिन मुश्किलें बढ़ती जा रही थी। घर की बुरी हालत को देखकर मुझसे छोटी आक्का ने कमर कसी और सबकी हिम्मत बांधते पिता जी से कहा –

       ‘‘...आप्पा अब एक ही रास्ता है। आप सभी जहां काम और रोटी मिले वहां जाए। अण्णा की पढ़ाई को जारी रखे और मैं यहीं रूककर जैसा बने वैसे दादी की देखभाल करूंगी...। आप बेफिक्र होकर जाए।’’

       और हुआ भी वैसे ही। मेरी पढ़ाई जारी रही। पिता जी ने जरूरी सामान उठाया। परिवार के साथ दूर कहीं सालदार के नाते मजदूरी के लिए निकल पड़े। मैं बीच-बीच में आक्का और दादी की ओर एकाध बार चक्कर लगा लेता। मेरी पढ़ाई परिवार के भविष्य का आधार थी, अतः मेरे आने-जाने से सूखे की विरानता में उनके चेहरे पर आशा की थोडी-सी हरियाली फैल जाती थी। मैं भी उनके सपनों को जिंदा रखने की भरसक कोशिश कर रहा था।

       आज भी मुझे याद है, स्कूल को छुट्टी थी। कोई त्यौहार था और मैंने सोचा चलो एक-दो दिन घर होकर आता हूं। इस बहाने मिलना भी होगा, आक्का और दादी का क्या चल रहा है देखना भी होगा। घर आते-आते अंधेरा घिर चुका था। खाने का समय भी टल चुका था। ...मुझे देखते ही आक्का हैरान हो गई। आज त्यौहार है इसलिए मैं गांव आया हूं, यह आक्का ने पहचान लिया। मैंने कुछ खाया नहीं जानते ही उसने बेचैनी से कहा –

       ‘‘अण्णा, बाहर कहीं मत जाओ, मैं अभी आयी...।’’ वह जल्दबाजी में बाहर गई। मैं दादी के पास बैठा और वह गांव-घर की हालत, लेन-देन, सुख-दुःख की कहानी बताती रही...। इतने में दरवाजे पर आक्का के कदमों की आहट सुनाई पडी। टिमटिमते दिए के रोशनी में मैंने देखा कि पडोस से बचा-खुचा पल्लू में छिपाकर लाया वह टोकरी में रख रही थी। अपने अभाव, दुःख, दर्द को छिपाते ममता भरे शब्दों में उसने कहा –

       ‘‘चलो उठो अण्णा। थोडा-सा रूखा-सूखा है खा लो। सुबह से खाली पेट रहे हो। बहुत देर हो गई है, ...चलो खा लो।’’

       दिल भर आया था, मन पर पत्थर रखकर आगे सरका। एक-एक कौर मुंह में डाले जा रहा था। थाली में रूखा-सूखा था, किसी के घर का बचा हुआ...। आक्का ने केवल मेरे लिए मांगकर लाया था...। इस हालत, दयनीयता और आक्का के असिम प्रेम में डूबकर निवाला गले से उतर नहीं रहा था पर आक्का-दादी की खुशी के लिए खाए जा रहा था। आंखों से टपकने वाले आंसुओं को अंधेरे में छिपाते हुए निवाले को और नमकीन बनाते हुए नीचे धकेल रहा था। पेट की भूख कम होना दूर रहा पर यह स्थिति दुःख-दाह को और बढा रही थी, मन भीतर से आक्रोश किए जा रहा था...। जैसे-तैसे खाना पूरा किया, उठा और बाहर जाकर अंधेरे में खडे होकर आसुओं को बहने दिया। कहां जाए? क्या करे? ...सीधे घर के छत पर चढा, दीवार से सर टिकाकर भर आए मन को और हल्का किया। आंखों से होकर मन की वेदनाओं को बाहर आने दिया, बहुत देर तक।

       आक्का से जुडी ऐसी एक नहीं कई घटनाओं की यादें आज ताजा हो रही थी। मन के बंद कटघरे को तोड़कर बाहर आ रही थी...। कुछ समय और काल के लिए आक्का ने मां होकर मुझे पालापोसा था।

■■

       औरंगाबाद के बस स्टाफ पर हम उतरे और सीधे सुदाम के कमरे का रास्ता पकड़ लिया। मैं आगे-आगे भाग रहा था और पत्नी पीछे-पीछे। दोनों के बीच मौन था। भीड़ से रास्ता निकालते हम अपने-आपको धकेले जा रहे थे। हमारे लिए मानो समय ठहर चुका था, भाव-भावनाएं मुक बनी थी...। रास्ते को तय करते वक्त मन में एक भय की छाया मंड़रा रही थी। सुदाम का कमरा जैसे-जैसे नजदीक आ रहा था तब हाथ-पांव आतंक से थरथराने लगे थे। रह-रहकर बुरे खयाल आ रहे थे, बुरे दृश्य आंखों से गुजर रहे थे...। अब आक्का ठीक तो होगी? कैसी हालत होगी? और कोई उल्टी-सीधी खबर तो कानों पर पडेगी नहीं ना? एक नहीं हजारों खयाल।

       इसी धुन और विचारों में कब पहुंचा पता ही नहीं चला। पैरों से लिपटे सुदाम के बच्चे की आवाज कानों पर पडी, ‘‘चाचा आए, चाचा आए...।’’ उसे प्यार से पुचकारते हुए हाथ पकड़कर बरामदा पार किया। दरवाजें पर कुछ चप्पलें बिखरी पडी थी...। बढ़ती धड़कनों के साथ अंदर दाखिल हुआ। सबकी नजरे मेरी ओर उठी। आक्का का पति, सास, सुदाम की पत्नी और एक-दो दूसरी महिलाएं वहां बैठी थी...। सबके बीच आक्का के हड्डियों का पिंजर बिस्तर पर पडा था। सारे कमरे पर भयानक छाया मंड़राने का एहसास हो रहा था...।

        आक्का की इस दशा को देखकर मेरा मन क्रंदन करने लगा था। बडी मुश्किल से दिल पर पत्थर रख रूदन को रोके रखा था। कारण यहां आक्का की सास के अलावा उमर से मैं ही सबसे बढा था...। सुनी आंखों से बिस्तर पर पडी आक्का पर नजर दौडाते हुए, फर्श का आधार लेकर वहीं बैठ गया। मेरे बैठते ही सुदाम की पत्नी ने आक्का को थोडा हिलाकर जगाया और मेरे आने की सूचना देनी चाही –

       ‘‘आक्का, आक्का जी... देखो जरा आंखें खोलकर कौन आया है! उठिए! देखिए। अण्णा आए हैं, साथ में आपसे मिलने के लिए भाभी जी आयी है। उठे। थोडी बात कर लिजिए इनके साथ...।’’

       आवाज सुनते ही बंद खांचों में आंखें थोडी हिली। जबरदस्ती आंखें खोलकर आक्का ने हम पर नजर दौडाकर पहचानने की कोशिश की। पहचान होने पर कुछ बोलने के लिए उसके सूखे होंठ थरथराने लगे। होंठों को खोलते वक्त भी उसे तकलीफ हो रही थी। लंबी वेदना के साथ उसकी कराह फूटी ...और लगातार सिसकने लगी। मेरे कानों पर उसकी दर्द से भरी सिसकियां पड रही थी लगता था कि कहीं दूर कोई दर्द से, पीडा से कराह रहा हो। सिसकियों से उसका सारा शरीर कांपने लगा। उसकी इस पीडादायी दशा को देखकर मेरे मन को हजारों दरारें पडी और इतनी देर से रोके रखे आंसू अचानक बांध तोड़कर बहने लगे। ...सबकी आंखें भी भर आई। कमरे का सारा माहौल सिसकियों और रूदन से भर गया। बुजुर्ग होने के नाते आक्का की सांस ने सबका साहस बांधा और समझा-बुझाकर चुप करने लगी।

       ‘‘...बस, बहुत हो गया। उसके लिए बहुत किया है अण्णा आप सबने। उसे ठीक करने के लिए पानी की तरह पैसा बहायाहै, ...वह ठीक हो जाएगी। ऊपर वाले की मर्जी हो तो चार दिनों में चले-फिरने लगेगी...।’’

       आक्का की तकलीफ मुझसे देखी नहीं जा रही थी। बहते आसुओं को पोछते-पोछते बाहर आया। जीजा जी से भी उसकी तकलीफ देखी नहीं जा रही थी, वे भी उठकर बाहर आ गए। दोनों भी बरामदे में जाकर बैठे। दोनों ओर बहुत देर तक चुप्पी छाई रही। पर मैं और चुप नहीं बैठ सका। गुस्सा, क्रोध और आक्रोश चुपचाप पीकर मन को समझाना था... कारण नियति ने जो तय किया था उससे कोई भाग नहीं सकता था। हां केवल कुछ दिनों के लिए टाला जा सकता था...। चुप्पी तोड़ने के लिए मैंने कहा –

       ‘‘आपको कब खबर मिली...?’’

       ‘‘आज ही...। यह बात भी दो-तीन जनों से होकर हम तक पहुंची थी। पर सच कहूं अब लगता है सुदाम ने बेवजह जल्दबाजी की। हाथों के सारे काम छोड़कर आना पडा। और यहां पर वैसी गंभीर स्थिति है नहीं...।’’

       ‘‘क्या कह रहे हैं जीजा जी? गंभीर स्थिति नहीं? कैसे कह सकते हैं? अब क्या बचा है उसमें? बोलने की शक्ति नहीं है? वह क्या बोल रही है यह भी समझ में नहीं आता है।’’

       ‘‘आप जो कह रहे हैं वैसे बिल्कुल नहीं है! अब आपको कैसे बताऊ! हम जब आए थे तब वह अच्छी-खांसी थी। खुद उठकर घंटाभर बैठी थी। बहुत देर तक हमसे बतियाते भी रही। लेकिन एक बात सच है अण्णा, आप कुछ भी कहे, उसके मन में अब भी गृहस्थी की आशा बाकी है! मुझे लगता है उसे ऐसी बीमारी में खाना-पीना चाहिए, आराम करना चाहिए। पर उसकी जान तो घर-गृहस्थी में अटक चुकी है। वहां क्या चल रहा है, गाय को बछडा हुआ या नहीं, क्या हुआ उसे। बछडा अगर बैल हो तो उसको खुब दूध पिलाओ। उसका ध्यान रखो... और बहुत कुछ...।’’

       जीजा जी निर्दयता से बोल रहे थे और मैं केवल सुनते हुए विचार करते जा रहा था...। मेरे दिमाग में एक ही बात बार-बार उठ रही थी – आक्का के अधूरे जीवन की। मन के अधूरेपन की। अतृप्त मातृत्व की...। सोच ही रहा था कि सुदाम के बीवी की आवाज कानों पर पडी –

       ‘‘अब आक्का उठकर थोडी बैठी है। आप उनसे थोडी बात कर लें।’’

       अंदर गया तो देखा आक्का दीवार से चिपककर बैठी थी। मनुष्य शरीर के नाते कुछ भी शेष नहीं था। एकाध चित्र जैसे दीवार को चिपाकाया जाता है वैसे वह चिपककर बैठी थी। सुनी आंखें, चेहरे की सारी चमक गायब थी और सूख चुकी, गल चुकी चमडी। लग रहा था मानो उसे हड्डी के साथ चिपकाया हो। उसका चेहरा अंदर से पूरी तरह सूख चुका था और आंखों के नीचे की हड्डियां ऊपर उठ चुकी थी। गली-सूखी उंगलियां सामने रखी मिठाई का छोटा टूकडा उठाकर मुंह में जबरदस्ती ठूंस रही थी...। उसके पास बैठते हुए कंधे पर हाथ रखते प्यार से परंतु कातर स्वर में पूछा –

       ‘‘क्यों, आक्का अब तुम्हें ठीक लग रहा है ना? कहां-कहां दर्द हो रहा है अब?’’

       किसी गहरे-अंधेरे कुएं से जैसी आवाज आती है वैसे कुछ शब्द गुंजते हुए बाहर निकले –

       ‘‘अब, क्या क्या हो रहा है और कहां-कहां दर्द हो रहा है, कैसे बताऊं तुम्हें... लग रहा है मानो मेरा सबकुछ खत्म हो चुका है...।’’

       इतना कहते-कहते उसकी अंदर धंसी हुई आंखों में आंसू भरने लगे। अज्ञात में खोई हुई उसकी आंखें दूर कहीं कुछ ढूंढ़ रही थी। हड्डियों के ढांचे में थोडी जान आ गई और उसका शरीर हिलने लगा। लंबा हाथ थरथराते हुए उठकर पेट की ओर गया। दर्द-पीडा की लकिरें उसके चेहरे पर उठती गई। कराह और असहनीय वेदनाएं चेहरे पर दिखने लगी। पीडा से व्याकुल होकर कराहते-कराहते आक्का बिस्तर पर फैलती गई...।

■■

       काम से बाहर गया सुदाम घर वापस आया था। उससे बातें हो गई। आक्का की बीमारी से उसके लिए भी कई मुश्किलें खडी हो गई थी। उसके शब्दों में शिकायत भरी थी। बात ही करते बैठे थे कि अंदर से उसके पत्नी ने आवाज दी –

       ‘‘खाना बना लिया है। मेहमानों ने भी खाना नहीं खाया। सब मिलकर थोडा-थोडा खा लें।’’

       खाने का मन तो था नहीं पर जीजा जी के साथ बैठ गए। सुदाम को समझाते रहा और जीजा जी से बात करते दो-चार कौर पेट में धकेल दिए।

■■

यहां आकर बहुत देर हो चुकी थी। चार-साढे चार बज रहे थे। वापस लौटना भी जरूरी था। सुबह निकलते वक्त ऑफिस में केवल एक ही दिन के छुट्टी की अर्जी छोड़ आया था। पत्नी को वापस जाना जरूरी है बता दिया। निकलने की तैयारी शुरू हो गई। निकलने से पहले आक्का से दुबारा बात करने की मंशा से थोडा हिलाकर जगाना चाहा। गर्दन के नीचे थोडा आधार देकर उसे बिठा दिया। मैं भी वहीं बिस्तर पर टिका। रूखे-सूखे, बिखरे बालों पर से हाथ फिराकर डबड़बाई आंखों से देखा और कहा –

‘‘निकल रहा हूं आक्का...।’’

रूमाल मुंह में दबाकर रूदन को रोके रखा। असहनीय हुआ तो उठकर बाहर आया...। दीवार की ओट में हताशा से बैठकर अंदर की आवाजें सुनता रहा। मेरी पत्नी कह रही थी –

‘‘आक्का जी इजाजत दीजिए हमें अभी। ज्यादा कुछ सोचे मत। दवाइयां ठीक समय पर लेते रहें। आप जल्दी ठीक हो जाएंगी...।’’

आक्का ने उत्तर में कुछ कहा नहीं। वह चुप थी। बैठे-बैठे केवल वेदना से कराह रही थी।

निकले से पहले सुदाम की पत्नी पूजा की थाली में कुंकम लेकर आई। मेरी पत्नी और उसने हल्दी-कुंकम एक-दूसरे के माथे पर लगाया। आंसू भरे आंखों से उन दोनों ने आक्का को दुबार आंखें भरकर देखा। उन्होंने मिलकर सुहागन की निशानी के नाते आक्का के माथे पर भी हल्दी-कुंकम लगाया पर कमजोरी के कारण उसकी गर्दन हिलने लगी थी और माथे पर लगाया जा रहा तिलक इधर-उधर फैलते जा रहा था। कुंकम तिलक उसके सुहागन होने की बात को और गहराई से अंकित किए जा रहा था परंतु उसके गाढे रंगो तले उसकी भाग्यरेखा धुंधलाते जा रही थी...। और मैं खुली आंखों से सबकुछ देखने के लिए मजबूर था। मन में उबलता आक्रोश फूटने के लिए उतारू था पर उसे जबरदस्ती रोके रखा था।

...मेरी आंखों के सामने जो खेलते-कुदते धीरे-धीरे बढी हो गई थी, छोटी होकर भी मुश्किल समय में जिसने कभी घर का आधार बनने के लिए कमर कसी थी, उसे आज दयनीय अवस्था में टूटते-बिखरते देख रहा था। बीमारी से गलते भी देख रहा था, उसका छोटा और छोटा होते जाना भी देख रहा था। ‘बच्चे की मां’ होना तो उसके नसीब में नहीं लिखा था लेकिन आज उसका ‘बच्चा’ होना देख रहा था। किसी अपने का, आत्मीय का इस तरह तिल-तिल घटते जाना, मृत्यु के नजदीक पहुंचना मेरे लिए दर्दनाक था...। काल की भयानकता के सामने मैं निहत्था खडा था। हाथ पर हाथ धरे बैठने के सिवा मैं कुछ भी नहीं कर पा रहा था। नियति की क्रूरता के सामने मैं मजबूर और हताश था...।

दुःख के विशाल और विस्तीर्ण महासागर में मुझे अकेला छोड़ अनंत में विलिन होने की आक्का तैयारी कर रही थी...। लेकिन इस अथाह दुःख को भी एक समाधान की झालर थी कि मेरी आक्का चिरंतन सुहागन के रूप में मृत्यु का वरण करने वाली थी...।

हाथ में थैली उठाकर पत्नी बाहर निकल पडी और मैं भी आक्का को पीछे छोड़ बोझिल कदमों से चल पडा। मेरी आत्मीय प्यारी बहन आक्का पीछे जोर-जोर से मानो आक्रोश कर चिल्ला रही थी, ‘‘...आण्णा, मुझे जीना है, ...अण्णा, मुझे जीना है...!’’

                           ■■■

शनिवार, 31 अगस्त 2013

दलित विमर्श की कसौटी पर 'मुर्दहिया'

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      संसार में मनुष्य का आगमन और बुद्धि नामक तत्व के आधार पर एक-दूसरे पर वर्चस्व स्थापित करने की अनावश्यक मांग सुंदर दुनिया को बेवजह नर्क बना देती है। सालों-साल से एक मनुष्य मालिक और उसके जैसा ही दूसरा रूप जिसके हाथ, पैर, नाक, कान... है वह गुलाम, पीडित, दलित, कुचला। दलितों के मन में हमेशा प्रश्न उठता है कि ऐसा क्यों? पर उनके ‘क्यों’ को हमेशा निर्माण होने से पहले मिटा दिया जाता है। परंतु समय की चोटों से, काल की थपेडों से पीडित भी अपनी पीडाओं को वाणी दे रहा है। एक की गुंज सभी सुन रहे हैं और अपना दुःख भी उसी तरीके का है कहने लगे हैं। शिक्षा से हमेशा दलितों को दूर रखा गया लेकिन समय के चलते परिस्थितियां बदली और चेतनाएं जागृत हो गई। एक, दो, तीन... से होकर शिक्षितों की कतार लंबी हो गई और अपने अधिकारों एवं हक की चेतना से आक्रोश प्रकट होने लगा। कइयों का आक्रोश हवा में दहाड़ता हुआ तो किसी का मौन। अभिव्यक्ति और प्रकटीकरण का स्वरूप अलग रहा परंतु वेदना, संघर्ष, प्रतिरोध, नकार, विद्रोह, आत्मपरीक्षण सबमें बदल-बदल कर आने लगा। ईश्वर से भेजे इंसान एक जैसे, सबके पास प्रतिभाएं एक जैसी। अनुकूल वातावरण के अभाव में दलितों की प्रतिभाएं धूल में पडी सड़ रही थी लेकिन धीरे-धीरे संघर्ष से तपकर निखरने लगी। ज्ञान का शिवधनुष्य हाथ में थाम लिया और एक-एक सीढी पर लड़खड़ाते कदम ताकत के साथ उठने लगे, अपने हक और अधिकार की ओर। एक के साथ दो और दो के साथ कई। संख्या बढ़ी और धीरे-धीरे मुख्य प्रवाह के भीतर समावेश। यह प्रक्रिया दो वाक्य या एक परिच्छेद की नहीं, कई लोगों के आहुतियों के बाद इस मकाम पर पहुंचा जा सका है। प्रत्येक दलित की कहानी अलग और संघर्ष भी अलग। उसके परतों को बड़े प्यार से उलटकर उनकी वेदना, विद्रोह, नकार और संघर्ष को पढ़ना बहुत जरूरी है ताकि प्रत्येक दलित-शोषित-गुलाम व्यक्ति के मूल्य को आंका जा सके। भारतीय साहित्य की विविध भाषाओं में बड़ी प्रखरता के साथ दलितों के संघर्ष की अभिव्यक्ति हुई है और हो रही है। हिंदी साहित्य में देर से ही सही पर सार्थक और आत्मपरीक्षण के साथ दलितों के संघर्ष का चित्रण होना उनके उज्ज्वल भविष्य का संकेत देता है। एक की चेतना हजारों को जागृत करती है एक का विशिष्ट आकार में ढलना सबके लिए आदर्श बनता है। जागृति के साथ आदर्शों को केंद्र में रखकर अपने जीवन के प्रयोजन अगर कोई तय करें तो सौ फिसदी सफलता हाथ में है। और आदर्श अपनी जाति-बिरादरी का हो तो अधिक प्रेरणा भी मिलती है। संघर्ष और चोट से प्राप्त सफलता कई गुना खुशी को बढ़ा भी देती है।

मूल समीक्षा 'रचनाकार' ई-पत्रिका में प्रकाशित है उसकी लिंक दे रहा हूं। लिंक को क्लिक करें सीधे 'मुर्दहिया' (आत्मकथन - डॉ.तुलसी राम) पर लिखी समीक्षा पर पहुंचेंगे। लिंक आगे पढ़ें: रचनाकार: पुस्तक समीक्षा - दलित विमर्श की कसौटी पर ‘मुर्दहिया’  प्रस्तुत समीक्षा गद्यकोश में भी प्रकाशित हुई है उसकी लिंक - मुर्दहिया / तुलसी राम / समीक्षा

शुक्रवार, 2 अगस्त 2013

बादल के बहाने भारत का वर्तमान और भविष्य



प्रकृति के महत्त्वपूर्ण अंगों में बादल, पर्वत, नदी, जमीन, मिट्टी, पहाड़, पौधें, फूल, फल, अग्नि, सूर्य, चंद्र... आदि का समावेश होता है। हमारे आस-पास जो भी होता है वह प्रकृति की देन है। मनुष्य हमेशा प्रकृति की गोद में अपने आपको सुरक्षित मानता है और उसी के बलबूते पर अपना विकास करता है। विज्ञान के लिए भी मूलाधार प्रकृति ही है पर आज इंसान ने हर जगह पर प्रकृति में हस्तक्षेप किया है तो परिणाम तो भूगतने ही पडेंगे। भारत में भी और विश्व स्तर भी आबादी इतनी बढ़ रही है कि इंसान घास-फूस हो गया है और कीडे-मकौडे की मौत मारा जा रहा है। प्राकृतिक मौत स्वीकार्य है पर दुर्घटनाओं एवं आपदाओं में आई मौत हमेशा पीडा देती है और उसे स्वीकारना भी मुश्किल होता है। केदारनाथ के बहाने हो या अन्य किसी बहाने, जो आपदाएं आती है उससे मनुष्य अंदर बाहर हील जाता है, पीडित होता है, दुःखी होता है। ऐसी घटनाओं को ध्यान में रखकर उचित कदम उठाने की जरूरत है। भारत जैसे भरपूर और अमर्याद आबादी वाले देश में तो इसकी पहल होना बहुत जरूरी है। अमरिका जैसे विकसित राष्ट्र की कम आबादी और उचित इंतजामों के चलते बडे शहरों के भयानक हादसों में भी मानवीय हानि कम होती है। जापान और अन्य सावध देशों में भी यहीं स्थिति है। सोचना पडेगा वे देश करते हैं तो हम क्यों नहीं? उनसे हमें कुछ सीख प्राप्त हो सकती है तो थोडा प्रयास कर देखे। प्रबल इच्छाशक्ति, उचित पहल, राजनीतिक मनोकामना, सरकारी ईमानदारी और इंसान की सोच में परिवर्तन हो तो मुमकिन है। सामान्य तौर पर सोचे तो भारत में तीर्थस्थलों की शांति नष्ट हो चुकी है, चाहे किसी भी जाति-धर्म के हो, उसका कारण एक ही है ऐसे स्थलों में मानव का अवांछित हस्तक्षेप। इंसान जिन स्थलों को पवित्र और पाक मानता है वहीं जाकर सबसे ज्यादा गंदगी फैलाता है। जहां इंसान पहुंचा वहां प्रकृति की शांति और पवित्रता नष्ट हुई तथा कुछ न कुछ अघटित के संकेत मिलेंगे ही।

मिडलैंड यु.के. से प्रकाशित 'लेखनी' ई-पत्रिका की लिंक आपको दे रहा हूं जिसके 'विचार' स्तंभ में 'बादल के बहाने भारत का वर्तमान और भविष्य' आलेख छपा है।  लिंक है http://www.lekhni.net/index2.html 
AUGUST-2013-HINDI
 आशा है आपको लेख पसंद आएगा।


डॉ. विजय शिंदे

'लेखनी' में प्रकाशित प्रस्तुत आलेख पाठको के लिए भेज रहा हूं कारण लेखनी का नया अंक निकले के बाद प्रस्तुत आलेख आपको पढने मिलेगा नहीं।

विचार

बादल के बहाने भारत का वर्तमान और भविष्य

     प्रकृति के महत्त्वपूर्ण अंगों में बादल, पर्वत, नदी, जमीन, मिट्टी, पहाड़, पौधें, फूल, फल, अग्नि, सूर्य, चंद्र... आदि का समावेश होता है। हमारे आस-पास जो भी होता है वह प्रकृति की देन है। मनुष्य हमेशा प्रकृति की गोद में अपने आपको सुरक्षित मानता है और उसी के बलबूते पर अपना विकास करता है। विज्ञान के लिए भी मूलाधार प्रकृति ही है पर आज इंसान ने हर जगह पर प्रकृति में हस्तक्षेप किया है तो परिणाम तो भूगतने ही पडेंगे। भारत में भी और विश्व स्तर भी आबादी इतनी बढ़ रही है कि इंसान घास-फूस हो गया है और कीडे-मकौडे की मौत मारा जा रहा है। प्राकृतिक मौत स्वीकार्य है पर दुर्घटनाओं एवं आपदाओं में आई मौत हमेशा पीडा देती है और उसे स्वीकारना भी मुश्किल होता है। केदारनाथ के बहाने हो या अन्य किसी बहाने, जो आपदाएं आती है उससे मनुष्य अंदर बाहर हील जाता है, पीडित होता है, दुःखी होता है। ऐसी घटनाओं को ध्यान में रखकर उचित कदम उठाने की जरूरत है। भारत जैसे भरपूर और अमर्याद आबादी वाले देश में तो इसकी पहल होना बहुत जरूरी है। अमरिका जैसे विकसित राष्ट्र की कम आबादी और उचित इंतजामों के चलते बडे शहरों के भयानक हादसों में भी मानवीय हानि कम होती है। जापान और अन्य सावध देशों में भी यहीं स्थिति है। सोचना पडेगा वे देश करते हैं तो हम क्यों नहीं? उनसे हमें कुछ सीख प्राप्त हो सकती है तो थोडा प्रयास कर देखे। प्रबल इच्छाशक्ति, उचित पहल, राजनीतिक मनोकामना, सरकारी ईमानदारी और इंसान की सोच में परिवर्तन हो तो मुमकिन है। सामान्य तौर पर सोचे तो भारत में तीर्थस्थलों की शांति नष्ट हो चुकी है, चाहे किसी भी जाति-धर्म के हो, उसका कारण एक ही है ऐसे स्थलों में मानव का अवांछित हस्तक्षेप। इंसान जिन स्थलों को पवित्र और पाक मानता है वहीं जाकर सबसे ज्यादा गंदगी फैलाता है। जहां इंसान पहुंचा वहां प्रकृति की शांति और पवित्रता नष्ट हुई तथा कुछ न कुछ अघटित के संकेत मिलेंगे ही।

      देश बढ़ रहा है और दुनिया भी बढ़ रही है। इस होड़ में सबसे ज्यादा हमले प्रकृति पर ही किए जा रहे हैं। विविध मंचों, पत्र-पत्रिकाओं एवं साहित्य में इस पर बार-बार चिंता जताई गई है। प्रकृति के भीतर हरियाली हमारी संवेदनाओं को जैसे जगाती है वैसे ही जैसे इंसान की नजर ऊपर उठती है तो बादलों के विविध रूप हमें आकर्षित करते हैं। हिंदी साहित्य और कविता के क्षेत्र में बादल पर केंद्रित कई कविताएं लिखी पर यहां मेरा उद्देश्य उसके माध्यम से मानवीयता, इंसानीयत, आपत्ति व्यवस्थापन, जाति-धर्म, सूखा, एकता, राष्ट्रप्रेम, समता, सर्वधर्म समभाव, प्रकृति की लूट, सभ्यता और संकृति का तहस-नहस होना आदि पर प्रकाश डालना है। उत्तराखंड़ के पर्वतीय इलाके में बादलों का फटना और उससे केदारनाथ के आस-पास के इलाके में जान-माल का हजारों-करोडों में नुकसान होना मनुष्य के सामने एक बादल कई सवाल खडे कर देता है।


1. बारिश
      बादल पहले भी थे, अब भी है और भविष्य में भी रहेंगे, बारिश का भी वैसे ही है। बादल का फटना भी जारी रहेगा, बारिश का कहर और पर्वत का गिरना भी जारी रहेगा। पर बादल और बारिश हमें पूछ रहे हैं कि ‘भीड़ बनाकर बेपरवाह रहने की इजाजत तो हमने नहीं दी थी।’ भारत की करोड़ो की रिकार्डतोड़ आबादी और हुजूम-भीड़ बनाने का तरिका गैरमतलब है। शिर्डी, पंढ़रपुर, त्र्यंबकेश्वर, अमरनाथ, केदारनाथ, हृषिकेश, वाराणसी, जगन्नाथपुरी, बालाजी... जैसे तीर्थस्थलों में रोज-रोज भक्तों की भीड़ इकठ्ठा होती है, बिना किसी आवश्यक इंतजाम के, भगवान भरौसे। बिना किसी मतलब के। कबीर सोलहवीं शति में कहकर गए ‘मोके कहां ढूंढ़े बंदे’ मैं तो तुम्हारे अंदर हूं पर हम अपने अंतर में झांके तो भारतीय कैसे कहे जाएंगे? केदारनाथ में बरसी बारिश और बहे पत्थर, पहाड़। प्रश्न उठता है यह बादल आए कहां से।
     "कहां से आए बादल काले?

      कजरारे मत वाले!
      शूल भरा जग, धूल भरा नभ,
      झुलसी देख दिशाएं निष्प्रभ
      सागर में क्या सो न सकें यह
      करुणा के रख वाले?"
                    (कविता – ‘कहां से आए बादल काले’ – महादेवी वर्मा)



       हालांकि आखों के आंसू और बादलों के पानी का नजदीकी संबंध है। विविध भाव-भावनाओं को लेकर आता है दूसरों के दिलों में संवेदनाएं जागृत करने वाला भाव ‘करुणा’ भी बादलों से संबंध स्थापित करता है। प्राकृतिक और शास्त्रीय आधार पर बादल कैसे भी किसी भी रूप में निर्माण हो परंतु जैसे खुशी को लेकर आता है वैसे दुःख और पीडा को भी। जरूरी है भविष्य में सावधानी बरते।

2. सूखा
       सूखे का कारण भी बादल ही और उसका न बरसना। बादल इंसान तो नहीं कि कहे तो बरसे और कहे तो रूके। प्रकृति के अनुकूल परिवेश और उसका समतोल उसको नियंत्रित करता है या बनाए रखता है। अगर इंसान होने के नाते हम अनियंत्रित हुए तो बादलों से कौनसे मुंह हम नियंत्रण की अपेक्षा कर रहे हैं। महाराष्ट्र ने पिछले दो साल से जो भोगा है; विशेष रूप से मराठवाड़े ने, वह दयनीय और दर्दनाक है। सूखे की मार इतनी जबरदस्त पड़ी कि सारी बनी-बनाई खेती और फलों के बगीचे नष्ट हो गए अब इसे दुबारा निर्माण करना हो तो सालों लगेंगे। अनाज वाली फसलें इस साल नहीं तो अगले साल उग सकती है पर फलों के बगीचे वाले पेड़ तो संभव नहीं। इससे किसानों की कमर टूट गई है। पिछले दस सालों में कई भारतीय किसानों ने कर्ज तले आत्महत्याएं की। जिस देश को कृषि प्रधान देश कहने में हम थकते नहीं, वहां एक किसान का मरना और आत्महत्या करना भी अपने घर की गमी जैसा है पर हमारी सारी संवेदनाएं पत्थर हो चुकी है। पास-पड़ौस की घटनाएं हमें अपनी लगती नहीं और उस पर हम सोचना भी नहीं चाहते। एक जगह पर सूखा, दूसरी जगह पर अनावश्यक बारिश क्या सूचित करता है। प्राकृतिक विविधता है तो इंसान अपना दिमाग वहां पर लगाएं। नदी जोड़ प्रकल्प कहां गायब हो गए; क्यों रूके। भारत राज्यों में बंटा देश और उन राज्यों में अलग-अलग पक्ष-पार्टी की सरकारें बिना माने संपूर्ण देश क्यों नहीं माना जाता। एक व्यापक और केंद्रीय योजना क्यों नहीं बनती। कोई योजना बनने से पहले हजारों दलाल उसे लूटने के लिए तैयार होते हैं। रेल, रास्ते, बिजली, पानी... जैसी मूल बातों को राष्ट्रीय स्तर पर ईमानदारी से विकसित करें तो भारत का कोई सानी नहीं। फिर बादलों को कहने की जरूरत नहीं पड़ेगी -

     "बरस जा रे, बरस जा ओ दुनिया के
      सुख संबल।
      पड़े हैं छाती चीर कर
      नाले-नदी सूने।"
         (कविता – ‘उठे बादल, झूके बादल’ – हरिनारायण व्यास)

       प्रकृति में अपने-आप बैलंस होगा। विकास हो पर प्रकृति को पूछकर, उसकी इजाजत लेकर, उसके नफे-नुकसान को ध्यान में रखकर। ध्यान रहे इस दुनिया में अपना कुछ है नहीं, जो है वह सारा का सारा प्रकृति का है।

3. धर्म-जाति और द्वेष
       प्राकृतिक विविधता जैसे, वैसे ही धर्म और जातिगत विविधता, गर्व करने लायक। पर फिलहाल यह भी हमारे देश की एकता पर प्रश्न चिह्न निर्माण करती है। लगता है धर्म-जाति का द्वेष देश की एकता पर काले बादल मंड़रा रहा है। धर्म-जाति के अनावश्यक प्रेम में आदमी अंधा होता है और सारी इंसानीयत तार-तार कर देता है। जो बात तीर्थ स्थलों के अनावश्यक भीड़ की वैसे ही धर्म-जाति के तहत अनावश्यक भीड़ की, अंधेपन की। आजादी के पहले भी और बाद में भी ऐसी स्थितियां कई बार निर्माण हो गई जिसमें मानवीयता को कटघरे में खड़ा किया गया।

     "काले बादल जाति द्वेष के,
      काले बादल विश्व क्लेष के,
      काले बादल उठते पथ पर
      नव स्वतंत्रता के प्रवेश के!
      X  X  X
      देश जातियों का कब होगा,
      नव मानवता में रे एका,
      काले बादल में कल की,
      सोने की रेखा!"
          (कविता – ‘काले बादल’ – सुमित्रानंदन पंत)

       ठीक है भूतकाल में जो भी हुआ वह घट चुका है, बदला तो जाएगा नहीं पर घटनाओं का पूनर्मूल्यांकन कर भविष्य में वह पूनरावृत्त न हो इसका ध्यान रखा जाना चाहिए। देश में कई जातियां और धर्म है उसे माने, पर चिपककर रहना गैरजरूरी है। जरूरत है जाति-धर्म विहिन व्यवहार की। प्राचीन परंपराएं और संस्कृतियां मिट रही है; अतः दहलिज को पार करते ही अपने निजी अस्तित्व का चोला उतार कर आए और सामाजिक जिम्मेदार व्यक्ति बने। हमारी एक कृति कितनों का लाभ करा रही है सोचे, नहीं सोचे कोई फर्क नहीं पड़ेगा पर कम से कम इतना तो सोचा जा सकता है कि हमारी एक कृति से किसी का नुकसान न हो।

4. परिवर्तन
      प्रगति का स्थायी तत्व है परिवर्तन। रोज नई सोच, नया विचार, नई कृति। अच्छे में सबसे अच्छा, विकास में सबसे अधिक विकास, मानवीयता में अधिक मानवीयता, प्रेम में सबसे अधिक प्रेम हो। इंसानीयत, मानवीयता, एकता, राष्ट्रप्रेम, समता, सर्वधर्म समभाव... सबसे अच्छा हो। इंसान दर इंसान बदला जा सकता है। देश दुनिया के बारे में टिप्पणी करना सहज होता है कारण उसमें हम अपने आपको मानते नहीं? अर्थात् परिवर्तन और अच्छे की जरूरत भी महसूसते नहीं। अतः देश दुनिया का सोचने से पहले व्यक्ति अपने भीतर परिवर्तन कर ऐसे हादसें न हो और इन जगहों से दूर रहे के लिए ‘मैं’ क्या कर सकता हूं सोचे। मानसून के उतरने से और बादलों के बरसने से सारी प्रकृति में परिवर्तन होता है तो घटनाओं के गुजरने से इंसान में परिवर्तन अपेक्षित है।

     "जहरी खाल पर
      उतरा है मानसून
      भिगो गया है
      रातों रात सबको
      इनको
      उनको
      हमको
     आपको
     मौसम का पहला वरदान
     पहुंचा है सभी तक...।"
           (कविता – ‘मानसून उतरा है’ – नागार्जुन)

       बस जरूरी है प्रकृति से पाए प्रत्येक वरदान को अपने हाथों में बड़े प्यार से संभाले। बुद्धि, भाषा, वाणी, विज्ञान... हजारों वरदान हैं, उन्हें अंजुलियों में संभालकर भविष्य का सोचे तो परिवर्तन जरूर होगा। समय-समय पर जो गलतियां हो गई उन पर शंकाएं उपस्थित कर, विवाद कर इंसान को जागृत होना पड़ेगा।

     "समय की शंकाओं पर विवाद करो
      समाधान सोचकर अलख जगाओ।
      स्व उत्थान से ही नवयुग आता है
     औ’ कल्पित स्वर्ग सच हो जाता है
     निद्रा है टूटेगी, तीव्र घात करो
     कोमल अंगों पर वज्रपात करो।"
               (कविता – ‘निद्रा है टूटेगी’ – अमरिता तन्मय)

निष्कर्ष
       हमारा देश जिसे सोने की चिडिया कहा गया, वैसे ‘सोने को बहुतों ने लूटा है’ पर जो भी बचा है उसको ध्यान में रखते हुए विकास को बनाए रखना भी जरूरी है। सबसे पहली जरूरत है बढ़ती आबादी और भीड़ को काबू में करने की, समय रहते सजग होने की और बुनियादी निर्णय लेने की। धर्म, जाति, राजनीति से ऊपर उठ देश को केंद्र में रखकर पहल करने की आवश्यकता है। जब समय हाथ से निकल जाएगा तो पछताने से कोई लाभ नहीं। बादल के माध्यम से देश, दुनिया, मानवीयता, इंसान, प्रकृति, सभ्यता, संस्कृति... के बारे में व्यापक चिंतन और चर्चा हो और इंसान सही रास्ते पर चले यहीं अपेक्षा।

       प्रकृति सबसे ताकतवर है महाकाल रूप में। ईश्वर हो न हो पर प्रकृति जरूरी है। इंसान की सुन्न आंखें उसका रौद्र रूप केवल देख सकती है। जरूरत है मिन्नतों की अपेक्षा, ईश्वर भरौसे बिना रहे आंखें खोल अपनी सुरक्षा के बारे में सोचने की। केदारनाथ जैसी सारी घटनाएं-विपदाएं आह्वान है और बिना सुरक्षा के इंतजाम किए भगवान भरौसे वहां या वैसी जगहों पर जाना खतरों से भरा है। हमारी सुरक्षा का ठेका ईश्वर या प्रकृति ने थोडे ही लिया है। हमारे देश में फैशन बन चुका है कि सबकुछ हम करते हैं और उंगली उठाते है ईश्वर पर। बेचारा मूर्ति से बाहर आकर जवाब नहीं दे सकता ना। अगर मूर्ति से बाहर आ जाता तो थप्पडों और घुसों से हमें लाल-पीला करने में कोई कसर नहीं छोडता। सरकार को दोष देना, ईश्वर को दोष देना बडा आसान बन गया है। बेवजह की भीड, तीर्थ यात्राएं, मंदिरों के आसपास होम हवन से बचे सामान का कचरा और गंदगी फेंकना, प्रकृति पर आक्रमण करना कोई इंसान से सीखे। खुद हजारों अपराध कर भगवान और प्रकृति को कटघरे में खडा करना अन्यायकारक है। रक्षा का आह्वान किया जा सकता है पर वह ईश्वर को नहीं तो भीतरी सजगता वाले शिव को।